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________________ जागरिका १५ सिद्धान्त है कि संसार का जितना भी वीयं होता है, वह सारा शरीर - सापेक्ष होता है । यह बहुत ध्रुव सिद्धान्त है जैन दर्शन का । संसार की जितनी शक्ति अभिव्यक्त और प्रकट होती है, वह सारी की सारी पुद्गल द्रव्य के सहयोग से होती है, पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से होती है । पुद्गल द्रव्य के सहयोग और अपेक्षा को छोड़कर कोई वीर्य या शक्ति प्रकट नहीं होती । हम अपनी चेतना को प्रकट करना चाहते हैं । अपनी वास्तविक सत्ता को प्रकट करना चाहते हैं । किन्तु वह प्रकट तब तक नहीं होती जब तक शरीर का सहयोग हमें प्राप्त न हो जाए। शरीर का सहयोग लिये बिना हम समयक्र्त्व को प्रकट नहीं कर सकते । शरीर का सहयोग लिये बिना सम्यक् दर्शन की जो शक्ति है, उसे हम बाहर या विकास में नहीं ला सकते । इसलिए आप इस नियम को मानकर चलें कि आन्तरिक शक्ति, आन्तरिक सत्ता, चैतन्य, चैतन्य का प्रकाश जो कि अभिव्यक्त होगा, प्रगट होगा, उसके साथ शरीर को हमेशा ध्यान में रखना होगा । शरीर की उपेक्षा कर, शरीर को भुलाकर, शरीर पर पड़ने वाली ऊर्मियों, चैतन्य की रश्मियों को उपेक्षित कर, हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां नहीं पहुंच सकते । इसलिए हम जैसे आत्मा पर, चैतन्य पर विचार करते हैं, उसके साथ-साथ हमें शरीर पर भी उतनी ही गहराई से विचार करना चाहिए। शरीर को भी उतना ही समझना चाहिए जितना कि आत्मा को समझना है । और मैं तो सोचता हूं कि शरीर को समझे बिना आत्मा को सहजतया पकड़ा नहीं जा सकता। जब हम द्वार में ही प्रवेश नहीं करेंगे तो हॉल तक कैसे पहुंच पाएंगे ! जब हॉल में आना है तो पहले द्वार में प्रवेश करना ही होगा । द्वार में प्रवेश किए बिना हॉल में नहीं पहुंचा जा सकता । जो द्वार है शरीर हमारा, उस द्वार में हम प्रवेश नहीं करते हैं, तो उसके भीतर होने वाले हॉल तक हम नहीं पहुंच सकते । कभी भी नहीं पहुंच सकते । इसलिए आत्मा तक पहुंचने के लिए शरीर की सारी जो स्थितियां हैं, शरीर के सारे जो द्वार हैं, उन द्वारों को पार करना होगा, उनको समझना होगा और उन्हें अपनी खोज का विषय बनाना होगा । मूर्च्छा में बहिर्मुखता रहती है । मूर्च्छा का सबसे बड़ा फलित है बहिर्मुखता । अब इसके बाद चेतना की दूसरी स्थिति आती है । वह है अन्तर्मुखता की, जागृति की । जागृति का फलित है अन्तर्मुखता । जब हम इस बात को समझ लेते हैं कि श्वास को किस मार्ग से प्रवाहित करना हमारे लिए जरूरी है, तब मध्य मार्ग को खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। और मध्य मार्ग को
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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