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________________ साधना का मूल्य : आंतरिक जागरूकता १६३ बाहरी चेतना लुप्त होने पर भी भीतरी चेतना लुप्त नहीं होती है । मैंने कुछ लोगों से पूछा भी था कि आप भीतर में नींद का अनुभव कर रहे थे या जागरूकता का ? उत्तर मिला कि हमारी आंतरिक जागरूकता विद्यमान थी, मौजूद थी, उसमें अन्तर नहीं आया । इसका कारण क्या है ? इसका कारण बताऊं आपको ! एक हमारा स्थूल जगत् है और एक हमारा सूक्ष्म जगत् । स्थूल जगत् में मेरे सामने नीम का पेड़ है, मेरे सामने इतने भाई-बहन बैठे हैं । ये खम्भे हैं, घड़ी रखी है, पट्ट रखा है, यह सारा स्थूल है । मैं देख रहा हूं, इन आंखों से देख रहा हूं। आंखें बन्द कर लूं, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देगा । यह स्थूल जगत् की बात है कि जहां आंख खोलने पर सब कुछ सामने दिखाई देता है, आंख मूंद लेने पर सारा अस्त हो जाता है । क्योंकि स्थूल जगत् के साथ संपर्क स्थापित करने का माध्यम है हमारा चक्षु । हम स्थूल जगत् के साथ संपर्क स्थापित कर लेते हैं । चक्षु बन्द हुआ, स्थूल जगत् से सारा संपर्क विच्छिन्न हो गया, टूट गया । दूसरा है हमारा सूक्ष्म जगत् । मैं खड़ा हूं और ठीक मेरे सामने दुनिया भर के सुन्दर से सुन्दर रंग नर्तन कर रहे हैं, नाच रहे हैं । कोई भी दुनिया का रंग ऐसा बाकी नहीं है जो मेरी आंखों के सामने न हो । कोई भी ज्योति के पुंज और परमाणु ऐसे नहीं हैं जो मेरी आंखों के सामने न हों । जितने वर्ण, जितने गंध, जितने रस और जितने स्पर्श इस दुनिया में श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ मिलते हैं, वे सारे के सारे मेरी आंखों के सामने नृत्य कर रहे हैं । किन्तु उन्हें आप भी नहीं पकड़ पा रहे हैं, मैं भी नहीं पकड़ पा रहा हूं। और इन आंखों से सौ वर्ष तक देखते चले जाएं, फिर भी नहीं पकड़ पाएंगे । तो फिर हमें क्या करना होगा ? इसके लिए हमें प्राण में मन को सम करना होगा ? जैसे ही प्राण में मन को सम किया और सूक्ष्म जगत् के साथ हमारा संपर्क स्थापित हो गया, फिर आपको रंग दिखाई देंगे, आपको ज्योति दिखाई देगी, विचित्र प्रकार की एक दुनिया दीखने लग जाएगी । यह कोई काल्पनिक दुनिया नहीं है । यह कोई कृत्रिम दुनिया नहीं है । दुनिया तो मौजूद है । हमारे आस-पास में मौजूद है । इतनी विचित्र सृष्टि हमारे आस-पास विद्यमान है किन्तु उसे देखने की क्षमता नहीं थी । हमने सूक्ष्म जगत् में प्रवेश किया और हमारा सूक्ष्म जगत् के साथ संपर्क स्थापित हो गया । अब हमें विचित्र प्रकार की दुनिया दिखाई देने लग गई । कभी-कभी ध्यान में इस प्रकार के रंगों का दर्शन होता है कि वैसे रंग
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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