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साधना का मूल्य : आंतरिक जागरूकता
एक बाहरी जगत् की और एक आंतरिक जगत् की, एक बाहरी सुषुप्ति की और एक भीतरी सुषुप्ति की-ये दो अवस्थाएं हैं चेतना की। प्रायः हम लोग बाहरी जगत् में बहुत जागृत रहते हैं और भीतरी जगत् में बहुत सुप्त या मूच्छित जैसे रहते हैं। हमारा मन बाहर की दुनिया में काम करता है, हमें लगता है कि हम जागरूक हैं, हम सजग हैं, ऐसा अनुभव करते हैं । बहुत सारी बातें जो घटित होती हैं वे हमारी बाहरी चेतना या बाहरी मन के स्तर पर ही होती हैं। इसीलिए हमारा वैसा संस्कार भी निर्मित हो गया है। साधना की सारी प्रक्रियाएं जो चलती हैं वे हैं अन्तर्मन की प्रक्रियाएं, बाहरी मन की सुषुप्ति की अवस्थाएं। बाहरी मन को सुषुप्त कर देना है, निष्क्रिय कर देना है। एक तन्द्रा या मूर्छा की अवस्था है, चेतना के निर्लोप हो जाने की अवस्था है। ऐसा अनुभव हो कि चेतना सुप्त हो गई है और अन्तर्मन काम नहीं कर रहा है । यही मूर्छा की अवस्था है ।
बाहर की सजगता और भीतर की मूर्छा एक विकल्प है । दूसरा विकल्प है बाहरी मूर्छा और भीतरी मूर्छा। तीसरा विकल्प है बाहरी मूर्छा और भीतरी सजगता, जागरूकता ।
पहला विकल्प है—बाहरी सजगता और भीतरी मूर्छा । यह ध्यान नहीं है और न आत्मविश्वास का कोई मार्ग है। नितान्त व्यावहारिक जगत् की प्रक्रिया है।
दूसरा विकल्प है—बाहर का मन भी मूच्छित और आन्तरिक चेतना भी मूच्छित । यह भी ध्यान की स्थिति नहीं है। इसमें हमारी चेतना का कोई विकास नहीं होता । इसे आप किसी मादक द्रव्य के द्वारा भी कर सकते
जिन देशों में बहुत स्नायविक तनाव है, टेन्शन बहुत ज्यादा है, उन दशों के लोग, उद्योग-प्रधान देशों के लोग अपने तनाव को कम करने के लिए मादक द्रव्यों का प्रयोग करते हैं। ऐसी गोलियां भी चल पड़ी हैं, उनका उपयोग भी करते हैं और उस उपयोग की स्थिति में फिर एक बार सब-कुछ भूल जाते हैं ।