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________________ १८२ महावीर की साधना का रहस्य इसका अर्थ होता है कि जो हम करना चाहते हैं, वही होगा, दूसरा नहीं होगा । हमने जो करने का संकल्प किया है, वह किया जाएगा और नहीं करने का जो संकल्प किया है, वह नहीं किया जाएगा। परमात्मा का ध्यान आत्मा को परमात्मा के रूप में बदलना शुरू कर देता है । यह विहार है । विहार का अर्थ है परिणमन । आप परमात्मा का ध्यान करें और आत्मा बने रहें, तो कभी परमात्मा नहीं बन सकते । आप परमात्मा तभी बन सकते हैं जब आप परमात्मा का ध्यान करते समय परमात्मा बनना शुरू हो जाते हैं, परमात्मा बनने लग जाते हैं । जो आत्मा परमात्मा का ध्यान करे और स्वयं परमात्मा न बनने लगे, वह कभी परमात्मा नहीं बन सकता। भगवान् महावीर ने 'कज्माणं कंडे'-क्रियमाण कृत के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । इसका अर्थ है, जो काम शुरू किया, वह कर दिया गया । जुलाहे ने वस्त्र बुनना शुरू किया, पहला धागा ताने पर चढ़ाया तो वस्त्र बन गया । कुम्हार ने घड़ा बनाना शुरू किया, मिट्टी को गोंद रहा है, घड़ा बन गया। बड़ा अजीब-सा लगता है । अभी पहला धागा बुना है, वस्त्र कैसे बन गया ? अभी मिट्टी गोंदी जा रही है, घड़ा कैसे बन गया ? समझ में नहीं आता। किन्तु यह बहुत सत्य है । यदि पहले क्षण में घड़ा नहीं बनता तो अंतिम क्षण में भी घड़ा नहीं बनता। यदि पहले क्षण में कपड़ा नहीं बनता तो अंतिम क्षण में भी कपड़ा नहीं बनता। हम लोग स्थूल दृष्टि से देखते हैं तो घड़ा पककर आंवे से निकल जाता है । तब हम कहते हैं कि घड़ा बन गया है । जब तक आंवे से पककर नहीं निकलता, हम नहीं मानते कि घड़ा बन गया । कपड़ा पूरा बनकर बाहर निकल जाता है, तब हम कहते हैं कि कपड़ा बन गया। पहले नहीं मानते कि कपड़ा बन गया । सचाई यह है कि पहले क्षण में ही कपड़ा बन गया । क्या पहला धागा जो बना, वह कपड़ा नहीं है ? क्या मिट्टी के गोंदे बिना घड़ा बन जाता ? नहीं बनता । घड़े की क्रिया जो शुरू हो गयी, जितनी हो गयी, उसे क्या हम अस्वीकार कर सकते हैं ? कपड़ा नहीं बना, घड़ा नहीं बना, हम नहीं मान सकते । यदि आप पहले क्षण में ही परमात्मा नहीं बनते हैं तो कभी भी नहीं बन सकते। जिस समय हमने परमात्मा का ध्यान किया, उसी क्षण में हम परमात्मा बन गए । हमारा काम शुरू हो गया । अब कितना समय लगेगा, यह अलग प्रश्न है । परमात्मा बन गए सूत्र की भाषा में कहा जाता है कि जो व्यक्ति
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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