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________________ ध्यान-साधना का प्रयोजन संकोच्यापानरन्ध्र हुतवहसदृशं तन्तुवत्सूक्ष्मरूपं, धृत्वा हृत्पद्कोशे तदनु च गलके तालुनि प्राणशक्तिम्, नीत्वा शून्यातिशून्यां पुनरपि स्वर्गात वीप्यसानां समन्तात् लोकालोकावलोकां कलयति स कलां यस्य तुष्टो जिनेशः ।। -जिस पर अरहन्त देव का अनुग्रह हो जाता है, वह अपने अपानरन्ध्र का संकोच कर प्राण-शक्ति को हृदय-कमल में ले जाता है। वहां से विशुद्धि चक्र में और वहां से तालू में ले जाता है। फिर वहां से शून्यातिशून्य ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है। वहां ले जाने पर वह कला, जो लोक और अलोकदोनों को देखने में समर्थ है, विकसित हो जाती है। जिस जिनेश्वर भगवान् की कृपा से यह सब होता है, उस जिनेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता आज जैन शासन में और तेरापंथ संघ में एक नया सूर्योदय हो रहा है । मैं बहुत वर्षों से कामना करता रहा कि हमारे धर्मसंघ में दो विशेषताएं भिन्नभिन्न दिशाओं में विकसित होनी चाहिए-एक उपदेश शाखा के रूप में और दूसरी ध्यान शाखा के रूप में। अगर वृक्ष एक हो शाखा वाला होता है तो सुन्दर नहीं लगता। उसकी सुन्दरता इस बात में है कि उसके कई शाखाएं हैं, मूल एक है। एक मूल पर कई शाखाएं होती हैं तब वृक्ष का विस्तार होता है। यदि सीधा तना होता है तो छाया नहीं होती । छाया का विस्तार शाखाओं के विस्तार पर निर्भर है। एक वह शाखा है, जो उपदेश देती है, लोगों को समझाती है। उन्हें धर्म के प्रति आकृष्ट करती है। दूसरी शाखा वह है जो ध्यान की गहराइयों में जाकर अन्तर की शक्तियों को खोजती है और प्रस्तुत करती है । ___हर मनुष्य अपने आप से परिचित हो, अपनी शक्तियों से परिचित हो, . यह अपेक्षित है। हम लोग सचमुच अपने आप से परिचित नहीं हैं, अपनी शक्तियों से भी परिचित नहीं हैं। हमारे भीतर बहुत सारी शक्तियां हैं, किन्तु उन शक्तियों का उपयोग नहीं करते, अतः वे नष्ट हो जाती हैं या व्यर्थ ही चली जाती हैं। एक कहानी है
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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