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________________ ध्यान और कायोत्सर्ग . १७३ ध्यान को तृतीय भूमिका निरालम्बन ध्यान-शुद्ध चैतन्य की पश्यना, केवल चैतन्य का अनुभव जो कषाय की प्रशान्त अवस्था में प्राप्त होता है । ध्यान के विषय में कुछ निर्देश १. स्थान निच्छ चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवज्जियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं, विसेसओ झाणकालम्मि ।। थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणं सुनिच्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे, सुष्णे रणे व ण विसेसो॥ तो जत्थ समाहाणं, होज्ज मणोवयणकायजोगाणं । भूओवरोहरहिओ, सो देसो झायमाणस्स ।। -ध्यानशतक, ३५-३७ -मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील व्यक्तियों से रहित विजन स्थान में रहे । ध्यानकाल में विशेष रूप से विजन स्थान में रहे । जिन मुनियों ने योग-भावनाओं का अभ्यास कर लिया है और जो उनमें स्थिर हो चुके हैं तथा जो ध्यान में अप्रकम्प मन वाले हैं, उनके लिए जनाकीर्ण ग्राम और शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं है । इसलिए जहां मन, वचन और काया के योगों (प्रवृत्तियों) का समाधान (स्वास्थ्य) बना रहे और जो जीवों के संघठन से रहित हो, वही ध्याता के . लिए श्रेष्ठ-स्थल है। २. समय कालो वि सो च्चिा जहिं जोगसमाहाण मुत्तमं लहह । न उ विवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो मणियं ।। -ध्यानशतक, ३८ –ध्यान के लिए काल भी वही श्रेष्ठ है जिसमें मन, वचन और काया के योगों का समाधान बना रहे । ध्यान करने वाले के लिए दिन रात या वेला का नियमन है नहीं। ३. आसन जच्चिस बेहावस्था, जिया ण झाणोवरोहिणी होई । झाइम्जा तववस्यो, ठिो निसण्णो निवण्णो वा॥
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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