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________________ ध्यान और कायोत्सर्ग १७१ मन की शान्ति प्राप्त नहीं होती । उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि आवरण क्षीण हो और वह पुनः निर्मित न हो । निर्जरा का अर्थ हैं आवरण का क्षीण होना और संवर का अर्थ है आवरण के पुनः निर्माण का निरोध । आवरणों के उपशान्त या क्षीण होने पर संवर अपने-आप होता है । तप से संवर और निर्जरा — दोनों होते हैं । ध्यान एक तप है । उससे नए आवरणों का निरोध और पुराने आवरणों का क्षय – ये दोनों एक साथ निष्पन्न होते हैं । इसलिए ध्यान एक परिपूर्ण साधना है । ध्यान के मूल सूत्र १. आहार - परिमित भोजन, न बहुत स्निग्ध और न बहुत रूक्ष । कभी स्निग्ध और कभी रूक्ष । २. स्थान- - एकान्त स्थान, जहां ध्यान में बाधा उत्पन्न करने वाला वातावरण न हो । ३. सहायक — ध्यान का अनुभवी साधक । ४. ज्ञान - भावना - ध्यान में सहायक शास्त्रों का स्वाध्याय | ५. दर्शन - भावना - मानसिक शान्ति, अनासक्ति, अनुकम्पा और सत्यनिष्ठा । ६. चारित्र - भावना - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अभ्यास । ७. वैराग्य - भावना - आत्म-स्वरूप के प्रति आकर्षण, वस्तुओं के विकर्षण, अभय और समभाव । ८. अप्रमाद - राग, द्वेष और मोह रहित वर्तमान क्षण का अनुभव । वर्तमान क्षण में जो बोध हो रहा है, जो संवेदन हो रहा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना । उसके साथ स्मृति और कल्पना को न जोड़ना, प्रियता और अप्रियता के भाव को न जोड़ना, केवल जानना और देखना । ९. आसन - विजय -- एक आसन में दीर्घकाल तक बैठने का अभ्यास । ध्यान की प्रथम भूमिका १. कायोत्सर्ग - कायिक ध्यान । यह खड़े होकर, बैठकर और लेटकर किया जा सकता है । इसकी साधना का रहस्य है— शरीर की चंचलता और ममत्व का विसर्जन । २. सूक्ष्म श्वास- आनापान ध्यान ।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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