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महावीर की साधना का रहस्य
२. अशरण भावना-अपने अस्तित्व के सिवाय कहीं कोई त्राण नहीं है । ३. संसार भावना-जन्म-मरण का विवर्त चल रहा है। ४. एकत्व भावना-वास्तविक सत्य यह है कि संवेदन के क्षेत्र में हर
व्यक्ति अकेला है। ५. अन्यत्व भावना-शरीर भी मेरा नहीं है, मुझ से भिन्न है। ६. अशौच भावना-इस शरीर से निरन्तर अशुचि का स्रोत बह रहा है। ७. मैत्री भावना-प्राणिमात्र के प्रति मैत्री। ८. प्रमोद भावना-दूसरों के उत्कर्ष में प्रमोद मानना । ९. करुणा भावना-समत्व की बुद्धि और व्यवहार । १०. मध्यस्थ भावना-तटस्थता ।
इन भावनाओं का नौका की भांति उपयोग करना है । नदी को पार करने के लिए इनका सहारा लेना है और तट पर पहुंचकर इन्हें छोड़ देना है। रागद्वेषात्मक वृत्तियों का पार पाने के लिए इनका अभ्यास करना है। वीतरागता के तट पर पहुंचते ही ये छूट जाती हैं। स्वाध्याय और ध्यान __स्वाध्याय और ध्यान से पूर्वसंचित कर्म क्षीण होते हैं। इसलिए मन की शान्ति चाहने वाला व्यक्ति स्वाध्याय करे। स्वाध्याय में उपयुक्त एकाग्रता प्राप्त होने पर ध्यान करते-करते जब एकाग्रता खंडित होने लगे तब फिर स्वाध्याय में संलग्न हो जाए। इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की आवृत्ति से मन की शान्ति प्राप्त हो जाती है । __ कर्म का आवरण जैसे-जैसे क्षीण होता है वैसे-वैसे मन शान्त होता चला जाता है । आवरण को क्षीण करने के लिए बारह प्रकार का तप विहित है। उसमें मुख्य तप दो हैं-स्वाध्याय और ध्यान । इन दोनों में मुख्य है-ध्यान । 'तप के शेष सब प्रकार ध्यान । इन दोनों में मुख्य है-ध्यान । 'तप के शेष सब प्रकार ध्यान के अंगोपांग हैं'–यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। आचार्य उमास्वाति के अनुसार परम शुक्लध्यानी की ध्यान-अग्नि में समूचे जगत् के जीवों के कर्म आवरणों को भस्म करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है । ध्यान की क्षमता का यह महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
भगवान् महावीर की साधना-पद्धति के दो तत्त्व हैंसंवर और निर्जरा। आवरण क्षीण होता है और फिर निर्मित होता है। इस क्रम में