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જામનગરનોઇતિહાસ. (પંચદશી કળા)
-: गंगा उत्पत्ति कवित :हुतो ब्रह्मजल्ल एक, ब्रह्मके कमंडलमें ॥ राख्यो तो जतन्न करी, भरी सार ग्यांनवि ॥ भयो नेक भागीरथ, राजा रघुवंश झुमे ॥ ताहीने तपस्या करी, लायो जोग ध्यानवि ।। मेरकीशिखरहुं पे, उतरी पहार फार ॥ जटिने जटामें धार, राखी मोद मानवी ॥ आयी फेर धरनीमें, मंगलास्वरुप वजा ।। जक्तकों उधारवेकों, जान्हविसु जानवि ॥४॥
-: श्रीकाशी महात्म कवित :मुक्तकी निवासी काशी, विश्वनाथवासी जहां ॥ गंगे पापनाशी नासी, त्रासी जम टरहे ॥ पुन्यकी प्रकासी भासी, सुखरासी गासी बेद ॥ काशीमे निवासी नाही, सोइ काशी तरहे । मनक्रम चासीकोउ, मनासी बिनासीजीको । भवकी भवासी मीटे, चोरासी न फरहे ॥ मेमासी बखान वजा, काशीसम काशी एक ॥ हासीमें भजासी तो, कैलास वासी करहे ॥५॥ मुक्तकी निसानी खानी, ज्ञाननी बखानी बेद ॥ बानीमें न आवे जानी, पानी सुखदानी हे ॥ ग्यानीकों अगोचरहे, ध्यानी हुंके ध्यानमेन ॥ ठामीहे त्रीशूलपर, विश्वनाथ मानी हे॥ भवानी समेत जहां, बस्तहे इशानी सदा ॥ कष्टकी करानीहानी गंगा स र सा नी हे॥ विज्ञानी विवेकडंसे, वजा नो पिछानी जाय ॥ काशीकी विधानी योतो, विरलेको जानीहें ॥६॥ सोइ गंगाजीको तिर्थ, कीनो जामबिभाजीने ॥ वेसो तीर्थ मितहुसे, दूसरो न करेगो ॥