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यवनों का अत्याचार-शासनदेव का
चमत्कार मुस्लिम शासनकाल में देवालयों की जो दुर्गति की गई वह वर्णनातीत है । जालोर-स्वर्णगिरि के वैभवशाली मन्दिरों को भूमिसात् करके सैकड़ों वर्षों की अजित गरिमा को नष्ट करने के साथ-साथ विस्मृति के गर्भ में न जाने कितने कीर्तिकलाप नेस्तनाबूद किए हुए अज्ञात घाव विद्यमान हैं, कल्पना नही की जा सकती। वे दुराशय शासक दुरभिसन्धि से अपने खतरनाक पंजे फैलाये रखते और जहां भी मौका लगता अपनी राक्षसी वृत्ति का शिकार उन पावन स्थानों को भी बना लेगे, इतिहास साक्षी है। जीरावला की घटना
जालोर से जीरावला तीर्थ अनतिदूर है उसकी पवित्रता नष्ट करने के लिए जो किया, उसकी संक्षिप्त झांकी जो मिलती है अविकल उद्धृत की जाती है।
सं० १३६८ में वे दुष्टात्मा यमदूत की भाँति जीरावला तीर्थ जा पहुंचे, जैन सत्यप्रकाश वर्ष १९ अंक ९ "जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ स्थापना का समय शीर्षक लेख से २०वीं गाथा यहाँ दी जाती हैमह तेरह अड़सट्टा वरसिहि सुरताणीह दल अमरस वरसिहि, उक्करसिहि अइ पुट्ठ । अण जाणह जालुरह हुंता, जीराउलिवेगि पहुंता, जमदूत जिम दुट्ठ ॥२०॥ जैन परम्परा के इतिहास पृ० ७२३ में इसका विशेष खुलासा इस प्रकार है :' एक बार जालोर के मुसलमानों ने तीर्थ को तोड़ने का विचार किया पर वे सफल न हो सके। इससे ७ शेख-मौलवी लोग जैन यति का वेश धारण कर मन्दिर में आये । रात्रि में उन्होंने खून छिड़क कर उसे अपवित्र किया और प्रतिमा को तोड़कर उसके ९ टुकड़े कर डाले। इस दुष्कृत्य से वे बेभान होकर गिर पड़े। बाहर न निकल सकने से सुबह में लोगों ने उन्हें पकड़ कर मार डाला। इस घटना से सबको दुःख हुआ। सेठ ने उपवास किया तो रात्रि में देव ने आकर कहा-खेद न करो, जो भावि भाव हो वैसा होता है। अब दरवाजे बन्द कर नौ सेर लापसी बना कर उसमें प्रतिमा के नवों टुकड़े दबा कर सात दिन रखो।
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