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________________ बारह सय पणयालि (१२४५) मग्गसिरि गारसि सिय दिणि । जसु कम्मणि सिरि नेमिचंदु लखमिणि रंजिय मणि ॥ अट्ठावनइ (१२५८) खेडिनयरि चित्तासिय दुइ दिणि । सजम सिरि संगहिय संति जिण भवणहि भाविणि ॥ पयठवणु जालउरि अठहत्तरइ (१२७८) माह सुद्ध छट्टिहि दिवसि । तेरह इगतीसइ (१३३१) दिवगमणु किन्ह छट्टि आसोय निसि ॥३०॥ सो जावाल पुरंमि रंमि वर थूमह मंडणु भव सय अज्जिय दुट्ठ पाव कम्मह सखंडणु सयल भविय जल निवह विमल मण वंछिय पूरणु देव असुर नर विबुह गण वर मण रंजणु । जिणदत्तसूरि गुरु पट्टधरु वीर तित्थ उद्धरण कर जुगपहाण जिणसरहसूरि हवउ संघ सुह रिद्धिकरु ॥३१॥ जिनप्रबोधसूरि श्री जिनेश्वरसूरिजी के आज्ञानुसार चातुर्मास पूर्ण होने पर श्री जिनरत्नाचार्य जावालिपुर पधारे और बड़े विस्तार से सभी दिशाओं के समुदाय की उपस्थिति में श्री जिनप्रबोधसूरिजी का पदस्थापना महोत्सव हुआ।' श्री चन्द्रतिलकोपाध्याय, श्रीतिलकोपाध्याय, वा० पद्मदेव गणि आदि अनेक साधुओं का संघ भी आ पहुंचा और बड़े भारी आडंबर के साथ सं० १३३१ फाल्गुन बदि ८ रविवार को यह महोत्सव सम्पन्न हुआ। मिती फाल्गुन सुदि ५ को स्थिरकीत्ति, भुवनकीत्ति मुनि व केवलप्रभा, हर्षप्रभा, जयप्रभा, यशःप्रभा साध्वियों को श्री जिनप्रबोध सूरिजी ने दीक्षित किया। १. जिनप्रबोधसूरि बोलिका गा-१२ में जिणरयण सूरिहिं वित्थरेणय जस्स पयठवणू सावी जावालिपुर वर मन रंगि निम्मिउ निय गुरुहि आएसउ ॥५॥ श्री जिनप्रबोधसूरि चतुःसप्ततिका मेंआवय तमभर दिणमणि नाणा जिण भवण हेमगिरि रुइरे । आणंद कंद नोरे जावालिपुरंभि पुर पवरे ॥४४॥ अ"दाय सालि भोयण कित्ती पीयूस जूस नियरेण । आणंदिय सयल जणो मुणिराउ जिणेसरो सूरी ॥४५॥ [ २९
SR No.032676
Book TitleSwarnagiri Jalor
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharati Acadmy
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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