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________________ श्री जिनेश्वरसूरि श्री जिनपतिसरि जी का स्वर्गबास हो जाने पर उनके पट्ट पर सं० १२७८ मिती माघ सुदि ६ को जावालिपुर में सारे संघ की सम्मति से श्री महावीर देव भवन में तीर्थ प्रभावनार्थ आचार्य सर्वदेवसूरि ने जिनपालोपाध्याय जिनहितोपाध्याय अदि संघ के साथ पूज्य श्री की आज्ञानुसार उनके शिष्य श्री वीरप्रभगणि को स्थापित कर श्री जिनेश्वरसरि नाम से प्रसिद्ध किया।' जालोर संघ ने सत्रागार, अमारि घोषणा, गीत गान एवं रास रचने व याचकों को मनोवाछित दान देते हुए यह उत्सव बड़े भारी समारोहपूर्वक मनाया। मिती माघ सुदि ९ को यशःकलश गणि, विनयरूचि गणि, बुद्धिसागर गणि, रत्न कीत्ति गणि, तिलकप्रभ गणि, रत्नप्रभ गणि और अमरकीति गणि नामक ७ साधुओं का दीक्षा समारोह भी जावालिपुर में हुआ। इसके पश्चात् श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज कुलधर बहुदेव यशोवर्द्धन के परिवार के सुकृत्यों का विशद वर्णन है जिसमें निम्नोक्त श्लोक में जावालिपुर–महावीर चैत्य में सेठ लालण द्वारा अपनी माता के पुण्यार्थ वासुपूज्य देवगृहिका निर्माण कराने का उल्लेख २०वीं गाथा में। यतः तत्राभूद् धुरि नागपाल उरुधीः पुण्योऽथयोऽवी करत सार्द्ध लालण साधुना स्वजननी पुण्याय वीर प्रभोः चैत्ये द्वादश देव देवगाहकां सौवर्ण कुम्भध्वजां श्री जावालिपुरे तथा द्विरकरोत् तीर्थेषु यानां मुदा ॥२०॥ श्री जिनपतिसूरि जी इसी वंश के थे तथा खींवड़ की पुत्री ने जिनेश्वरसूरि जी से तथा जिनप्रबोधसूरि के आचार्य पद के समय इसी वंश के भाई बहिन स्थिरकीत्ति और केवलप्रभा ने दीक्षा ली थी। १. हमारे सम्पादित ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित गुरु गुण षट पद में बार अठहत्तरइ माह सिय छट्टि मणिज्जइ जिणेसरसूरि पइसरइ संधु सयलु विविह सज्जइ सूरिमंतु सिरि संग्वएवसूरिहिं जसु दिन्नउ जालउरिहि जिण वीर भुवणि बहु उछब कोनउ कंसाल ताल झल्लरि पडह वेण वंसु रलियामणउ सुपडंति भट्ट सुमहि गहिर जय जय सद्द सुहावणउ ॥७॥ [ २३
SR No.032676
Book TitleSwarnagiri Jalor
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharati Acadmy
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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