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________________ ( २७ ) वह उतने ही अंशोंमें पाप कर्मसे बचा रहता है-उसके नये कौका संचार नहीं होता । जो जितनी अधिक छूटे रखता है-अपनी इच्छाओंको जितना कम संयममें रखता-वह उतना ही अधिक पापोपार्जन करता है । कुछ जैननामधारी कहते हैं कि श्रावककी छूटोंके लिये भी उसे धर्म ही होता है क्योंकि गार्हस्थिक जीवनके निर्वाहके लिये उन छूटोंकी नितान्त आवकता रहती है, किन्तु तेरापन्थी तो इसे मिथ्या बतलाते है। भगवानने साधुओंको जो छठे दी हैं वे छूटें उनके संयमी जीवनका अङ्ग हैं इसलिये धर्म हैं । श्रावककी छूटे उसकी अपनी बनायी हुई छठे हैं-उसके गार्हस्थिक जीवनकी अङ्ग हैं, उसके असंयम वृद्धि एवं पोषणके कारण हैं अतः पाप हैं। एककी छूटे धर्मके यथोचित पालनके लिये आवश्यक हैं, दूसरेकी छूटे गृहस्थीमें अधिकाधिक मुग्ध एवं लिप्त होनेके लिये ही हैं इसलिए दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर है। साधुको दी हुई छूटें धर्मकी पोषक हैं-उनमें संयम-रक्षाका गम्भीर हेतु रहा हुआ है, परन्तु श्रावककी रखी हुई छूटें संयम धर्मकी बाधक और इसलिए आत्म घातक हैं । जो जो क्रियाएँ संयमी जीवनकी बाधक हैं उनका भगवानने पूर्ण निषेध किया है और इसलिये श्रावककी छूटोंमें पाप ही ठहरता है। अन्य सम्प्रदाय वालोंसे तेरापंथियोंका मत-पार्थक्य इस विषयमें भी है, पर न्याय दृष्टिसे देखनेसे सत्यासत्यका निर्णय होगा। (५) जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जाण । मारणवालाने हिंसा कही, नहीं मारे ते दया गुणखान हो । कोई जीव जीवित रहता है यह दया या अनुकम्पा नहीं है। जीव अपने अधिकार या स्वोपार्जित कर्मके बल पर ही जीवित रहता है। जब तक आयु समाप्त नहीं होता किसीकी ताकत नहीं किसी जीवको मार दे या उसका जोना बंद कर दे । इसलिये कोई जीव जीवित रहता है तो उसमें किसीका अहसान नहीं। इसी प्रकार किसी जीवका मरजाना ही हिंसा नहीं है क्योंकि जीव अपने २ कर्मोदयसे मरते ही रहते हैं। जीवन और मरण तो इस संसार की नित्य वस्तुएँ हैं।
SR No.032674
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Terapanthi Sabha
PublisherMalva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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