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वहीं उन्हें मौन धारण करना पड़ा है। उदाहरणस्वरूप कुंआ खुदानेमें लगे हुए किसी मनुष्यने भगवानको प्रश्न किया कि प्रभु ! कुआं खुदानेमें मुझे पाप होगा या पुण्य । प्रभुने इस प्रश्नका कोई प्रत्युत्तर न दिया बल्कि मौन धारण किया। यहां कुआँ खुदानेसे जीव हिंसा हो रही थी इसलिये यदि भगवान् यह कहते कि यह पुण्यका कार्य है तो झूठ बोलनेसे मोहनीय कर्म का बंध करते और यदि सत्य बोलते हुए यह कह देते कि इसमें पुण्य नहीं पाप है तो शायद कुआँ खोदना बन्द हो जानेसे जीवोंको पानी का लाभ न होता । इस प्रकार जीवोंके सुखमें अन्तराय पहुंचानेसे उन्हें अन्तराय कर्मका बंध होता । एक ओर मोहनीय कर्मका बंध ओर दूसरी ओर अन्तराय कर्मका बंध था इसलिये भगवानने प्रश्नका कोई उत्तर न दिया । जैनके कुछ सम्प्रदाय वाले मौनको सम्मतिका लक्षण ठहराते हैं परन्तु गहन विचार करनेसे ऐसी मान्यता भ्रान्त मालूम हो जायगी । नीतिविदोंने "मौनं सम्मति लक्षणम्" अवश्य बताया है । किन्तु “नीति" और धर्मके क्षेत्रमें बहुत अन्तर है। नीतिके मान्यताके अनुसार भी हम मौन भावको सदा सर्वदाके लिये सम्मतिका लक्षण प्रमाण नहीं कर सकते, और जैनधर्मके अनुसार तो "मौन" का अर्थ सम्मति किसी प्रकारसे और किसी अंशमें नहीं हो सकता।
(४) व्रतमें धर्म, अव्रतमें अधर्म है। जैन धर्म, साधकोंके दो भेद करता है । एक अणुव्रतियाँका जो गृहस्थ-जीवनमें रह कर आत्म-कल्याण साधन करनेका प्रयास करते हैं और दूसरा महाव्रतियोंका जो सर्व व्रती साधु होते हैं । इन दोनों प्रकारके साधकोंका आदर्श तो समान ही रहता है परन्तु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन आत्मकल्याण के साधनोंको दोनों समान रूपसे नहीं अपना सकते। आवक गृहस्थाश्रमी है अतः अपनी गार्हस्थिक आवश्यकताओंके कारण इन व्रतोंको आंशिक रूपमें ही स्वीकार कर सकता है अर्थात् वह मर्यादित धमका पालन करता है। परन्तु साधु सम्पूर्ण रूपसे इन व्रतोंको अङ्गीकार