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२ - तेरापन्थी सम्प्रदाय के अनुसार जहाँ तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा है वहाँ धर्म और जहाँ प्रभु ( बीतराग देव ) की आज्ञा नहीं वहाँ अधर्म है।
जैसे कि आहारादिको समानधर्मी साधुओंमें वितरण कर खाना आज्ञा में है, अतः साधुके लिये धर्म है परन्तु किसी साधुको किसी दुष्टके आक्रमण करने पर उस साधु की पक्ष लेकर किसी भी साधुके लिये उस अत्याचारी को दंड देना, ताडना आदि बल प्रकाश करना आज्ञाके बाहिर है अर्थात् मना है । साधु एक दूसरे की व्यावच करे इसमें ग्रभुआज्ञा से धर्म है परन्तु एक साधुके लिये एक श्रावक की व्यावच करना करवाना व अनुमोदना, पाप मूलक है कारण यह प्रभुकी आज्ञा के सर्वथा खिलाफ है**
(३) प्रभुने जहां मौन रखा है वहां पाप-केवल पाप ही है-धर्म और पाप मिले हुए नहीं हैं। जहां प्रभुने हाँ और ना दोनोंमें पाप समझा
कर्म रूके तिण करणी में आगन्यां, कर्म कटै तिण करणी में जाण रे । ● यां दोयां करणी विना नवि आगन्यां, ते सगली सावद्य पिछाण रे || ** जे जे कारज जिन आज्ञा सहित छे, ते उपयोग सहित करे कोय | ते कारज करतां घात होवें जीवांरी, तिणरो साधने पाप न होय रे ।। नदी मांही बहती साध्वी ने साधु राखें हाथ सम्भावै । तिण मांही पिण छै जिण जी री आज्ञा, तिणमें कुण पाप बतावैरे || इर्या समिति चालतां साधु स्युं, कदा जीव तणी होवे घात । ते जीव मुआं रो पाप साधु ने, लागे नहीं अंश मात रे || जो इर्या समिति बिना साधु चाले, कदा जीव मरे नहीं कोय । तो पिण साधु ने हिन्सा छउँ कायरी लागें, कर्म तणो वंध होयरे || जीव मुआ तिहाँ पाप न लाग्यो, न मुआ तिहाँ लागो पाप । जिण आज्ञा संभालो जिण आज्ञा जोवो, जिण आज्ञा में पाप म थापोरे ||