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( २३ ) और अन्य धर्मों के सिद्धान्तोंसे मिलता जुलता था। इस प्रकार सैकड़ों वर्षों के परिवर्तनसे आते आते इतना विकार आया कि जैनधर्मके असली स्वरूप और बादके स्वरूपमें कोसोंका अन्तर पड़ गया। अनेक महामना धर्मधुरन्धरोंने जैनधर्मके सत्य स्वरूपके खोजमें अपना हाथ लगाया और आंशिक सफलता भी प्राप्त की । संत भीखणजी भी इन्हीं महान पुरुषोंमेंसे एक थे। वे सबसे बादमें हुए परन्तु सबसे अधिक परिश्रम इन्हींने किया और पूर्ण सफलता भी इन्हींको मिली। इनका मत कोई नया धर्म नहीं है बल्कि शास्त्रोक्त जैनधर्मसे पर्ण समन्वय या एक रूपता रखता है। इस प्रकार जैनधर्मके सनातन स्वरूपसे उसका पार्थक्य न होते हुए भी जैनधर्मके जो अन्य सम्प्रदाय हैं और जिनका अस्तित्व इससे प्राचीन है उनके साथ कई खास बातोंमें इसका मतभेद हो जाता है। हम थोड़ेमें इन मतभेदोंका दिग्दर्शन करा देना उचित समझते हैं। १-तीर्थकर भगवान् केवल निरवद्य करणी की आज्ञा देते हैं, सावध करणी की आज्ञा नहीं देते । निरवद्य करणी से जीव को मोक्ष पद प्राप्त होता हैं परन्तु सावध करणी से नये कर्म का बंध होकर जीव की दुगति होती है । जो कर्म रोकने और काटने के कार्य हैं भगवान उन्हें करने की आज्ञा देते हैं, पर इसके अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य सावध है पापास्रव के कारण हैं अतः प्रभु आज्ञा नहीं देते। तेरापंथी सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि निरवद्य कार्य याने भगवानका अनुमोदित कार्य कोई भी मतावलम्वी क्यों न करे वह आज्ञा में है । जैनके दूसरे सम्प्रदाय वाले जैनेतरको शुद्ध करणीको भी आज्ञा वाहिर समझते हैं ।*
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* दोय करणी संसार में, सावद्य निरबद्य जाण । निर्वद्य में जिण आगन्यां, तिण स्युं पामें पद निर्वाण ॥ सावध करणी संसार नी, तिण में जिन आगन्यां नहीं होय । कर्म बंधै छे तेह थी, धर्म म जाण्यो कोय ।।