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________________ भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्याथं न वेत्ति यः। । यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा ॥१६॥ अज्ञात्वा ग्रन्थतत्त्वानि वादं यः कुरुते नरः। लोभाद्वाऽप्यथवा दम्भात्स पापी नरकं व्रजेत् ॥१८॥ जो वेदों तथा शास्त्रों में केवल ग्रन्थ का अभ्यासी है और प्रन्थों के अर्थतत्त्व को नहीं जानता उसका वह अभ्यास वृथा है। वह केवल भार को वहन करता है जो महानुभाव ग्रन्थ के अर्थतत्त्व को जानते हैं उनका ग्रन्थाध्ययन सफल है। जो व्यक्ति ग्रन्थों के तत्त्व को जाने बिना लोभ से अथवा दम्भ से व्यर्थ का विवाद एवं कलह करते हैं वे नरकगामी होते हैं। ___ अतः शास्त्रीय व्यापक अर्थ को ग्रहण कर सङ्कुचित अर्थ से सदा बचने का हमें प्रयत्न करना चाहिये इसी से विश्व का मार्ग प्रदर्शन हो सकता है । निरुक्त के निघण्टु द्वारा वेदादि शास्त्रों के गम्भीर अभिप्राय के जानने में सहायता मिलेगी ऐसी मेरी मान्यता है। वेदादि शास्त्रों की कुञ्जी निरुक्त के अभाव में बन्द तालों में छिपी-सी पड़ी है। __ वेद ब्रह्माण्ड के समष्टिगत तत्त्व को हमें आदिष्ट करते हैं; धर्म शास्त्र व्यवहार और परमार्थ का हमें समवेत ज्ञान कराते हैं । आज सही चाभी से ही इस अक्षयभण्डार को खोलकर हमारे शुभमङ्गल की कामना करनेवाले महर्षियों के हार्द को समझना हमारा कर्तव्य है इसी में सब का कल्याण है। यहां यह ध्यान में रखना
SR No.032670
Book TitleSmruti Sandarbh Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaharshi
PublisherNag Publishers
Publication Year1988
Total Pages720
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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