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में कृषि कर्म तथा काले रंग का मृग होता है वहीं के लिये यज्ञों का विधान बताया है।
हारीत आदि कुछ स्मृतियों में देवोपासना, देवोत्सव आदि का विधान और इष्टापूर्त का विस्तार है। इन सबका अभिप्राय उच्च भावना द्वारा ईश्वर परायणता का है। किसी स्मृति ने आचार को, किसी ने व्यवहार-दण्डनीति को किसी ने प्रायश्चित्त आदि को, प्राथमिकता दी है। यह सब कालभेद से उपपादन है। स्मात सिद्धान्त सब को सांस्कृतिक जीवन की प्रेरणा देता है। संसार में बर्बरता, विभीषिका और पारस्परिक विरोध का प्रधान कारण ईश्वर के अस्तित्व को न मानने से रागद्वष काम क्रोध की स्वच्छन्द गति ही है। प्राणी मात्र अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लवन करने को तब ही दौड़ते हैं जब उनको किसी का भय नहीं होता है। वेदों में कहा गया है -"भीपास्मात् तपति सूर्यः' भगवान् के भय से सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारा एवं मृत्यु आदि अपनी-अपनी मर्यादा पर चलते हैं। अव्यक्त भगवान् का ज्ञान स्मृतियों द्वारा होता है, जो वस्तु हमारी आंख या कान आदि ज्ञानेन्द्रिय का विषय नहीं है और उस वस्तु की स्थिति है तो उसका ज्ञान हमें शब्द प्रमाण लेख द्वारा ही होता है। उस लेख को शास्त्रीय कहते हैं जिससे ईश्वर का ज्ञान हो । जिसका ईश्वर पर विश्वास नहीं है वह व्यक्ति सांसारिक कार्य में किसी का भी विश्वासपात्र होने का अधिकारी नहीं है। ईश्वर के भय से लोग छिपकर