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( य ) नहीं थी। व्यवहार तो राज्यशासन में तब से आया जब से सत्य का ह्रास और भोगों की अभिरुचि का प्रवाह सीमा को अतिक्रमण कर गया। राज्यशासन में व्यवहार का स्थान साक्षी, दण्डधर्म आदि हैं। दाय को तो धर्म माना गया है। दाय धर्म वैदिक काल में एक रेखा पर है, परन्तु स्मृति ग्रन्थों में दाय भी व्यवहार प्रकरण में रक्खा गया लेन-देन, पूंजीकर, राज्यकर आदि सब व्यवहार दण्डनीति के अन्तर्गत हैं । ___ मनु याज्ञवल्क्य आदि कुछ स्मृतिकारों ने प्रथम आचार उसके अनन्तर व्यवहार तथा दुष्टकर्मों के दण्ड एवं प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है, उन महर्षियों के बताये मार्ग पर चलने को भी धर्म कहा है। जैसे-संस्कार-धर्म, राजधर्म, दण्डधर्म, और प्रायश्चित्त धर्म । जिस मर्यादा को उन त्रिकालज्ञ तपोनिष्ठ ऋषि मुनियों ने अपने समाधिस्थ विचार से संसार के सञ्चालन के लिये बताया है, उसे भी धर्म के नाम से माना गया है। स्मृतियां कुछ श्लोकों में हैं एवं कुछ सूत्रों में । भारतीय व्यवहार राजदण्ड का मापदण्ड मनु याज्ञवल्क्य से लिया गया है।
कुछ स्मृतिकारों ने जैसे, आश्वलायन, व्यास, बौधायन आदि ने केवल वर्णाश्रमधर्म और प्रायश्चित्त का ही अधिक गौरव माना है। शातातप आदि ने रोग-मुक्ति का उपाय और हारीत, पाराशर आदि ने इस युग में कृषि कर्म करना उससे उपजीवन सभ्यता का निरुपद्रव जीवनोपाय बताया है । स्मृतियों के विचार करने से स्मार्त धर्म का आधार कृषि कर्म मुख्य है। जिस देश