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रजकी तथा" आदि। सभी के जनन मृतकाशौच में अस्पृश्यता रहती है। नित्य शौचादि से निवृत्त होनेपर हाथ धोने के पूर्व व्यक्ति अस्पृश्य है । लेकिन जब उनके रोग दूर हो जाते हैं अथवा समय की अवधि निकल जाती है और पापों का प्रायश्चित्त हो जाता है तो वे फिर शुद्ध हो जाते हैं। ___ अतः अस्पृश्यता नित्य वस्तु नहीं है देश, काल एवं अवस्थाभेदेन स्पृश्यता अस्पृश्यता बन जाती है और अस्पृश्यता स्पृश्यता बन जाती है। यह तो हुई शारीरिक रोगों की अस्पृश्यता के सम्बन्ध की बात। जिस प्रकार शारीरिक अस्पृश्यता है उसी प्रकार मानसिक रोग हैं । मानसिक अस्पृश्यता मानसिक मल से होती हैं फिर वह मल चाहे किसी भी जाति में क्यों न हो। जिसके मानसिक मल है तो वह अस्पृश्य एवं जिसके वह दूर हो जाते हैं वह स्पृश्य है। शास्त्र के सन्तुलन में शारीरिक अस्पृश्यता से मानसिक अस्पृश्यता कहीं अधिक गम्भीर है। शरीर के रोग इसी देह के साथ रहते हैं मानसिक रोग तो जन्मजन्मान्तर तक चलते हैं। संस्कार इन सब को दूर करने के लिये विशेष विधि है जिसका उद्देश्य मानव-जीवन को सफल बनाना है। इस प्रकार सब प्रकार का मैलापन दूर करना स्मृति का सिद्धान्त है । लिखा भी है-"पा'मा च मलमुच्यते”। सब मनुष्य समान हैं, अपने-अपने गुण के अनुसार कर्म करने पर सब मुक्ति के पात्र हो जाते हैं। प्रकृति नटी की महती प्रसार योजना में छोटे-बड़े का भेद कहीं नहीं है।