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की उचता की प्रशंसा की गई है। "सेवा धर्मः परम गहनो योगिनामप्यंगम्यः" सेवारूपी परम धर्म जिसे आत्मधर्म कहते हैं ऐसे निष्ठावान् व्यक्तियों पर और-और कर्मों का बोझा लादना समुचित नहीं। “सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः" ऐसे सम्पूर्ण कर्म की उच्चता प्राणीमात्र की सेवा करनेपर परिसमाप्त है। आज कालक्रम से जिस सेवा कर्म को गीता वेदादि शास्त्रों ने परमोच्च कर्तव्य माना है उस महनीय गौरवास्पद कर्तव्य को करनेवाले व्यक्तियों को निम्नवर्ग में मानना यह उन लोगों का दम्भ एवं आत्मधर्म का तिरस्कार है। हमारा यह परम सौभाग्य होना चाहिये कि उनके तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति हम असहिष्णु होकर उन्हें प्रोत्साहन दें और जिन वर्णों की वह सेवा करता है उनके यज्ञादि कर्मों का फल तो उन्हें बिना यज्ञ किये ही मिल जाता है। जैसे, कोई यज्ञार्थ धन या सेवा देता है उसे भी यज्ञ का फल मिलता है । __ शूद्रत्व की परिभाषा ब्रह्मसूत्र में आयी है-“सुगतस्य तदनादरश्रवणात् तद्रवणाच” अर्थात् जो अनित्य वस्तु के लिये शोक करता है, वह शूद्र है।
ब्रह्मज्ञानी चाहे किसी भी वर्ण में हो वह सदैव पूज्य है। ब्राह्मण तभी पूज्य होते थे जब उन्हें ब्रह्मज्ञान होता था।
देखिये रैदासजी चमार जाति में होते हुए भी एवं कबीर जी जुलाहा जाति में होते हुए भी सब के पूज्य हुए। इसी प्रकार सनकादि क्षत्रिय और जाजलि तथा सजन कसाई आदि ब्रह्मज्ञान से पूज्य हुए। यह उन लोगों का भ्रम मात्र है जिन्होंने शास्त्र