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[ ५] अध्याय प्रधानविषय
या गई है। इस कारण व्रात्यता होने से उनको सावित्री उपदेश का अनधिकार कहा गया है
(१-१६)। १०१ सङ्करजातिनिरूपणम्।. १७६३
रथकारादि वर्णसङ्कर जाति की परिगणना कर
इनको ब्रात्य कहा है ( १-१६)। १०५०१ राजधर्मवर्णनम् ।
१७६४ वर्णानुकूल मनुष्यों को वृत्ति देना, कर लगाना, ब्रह्महत्यादि महापापों का प्रायश्चित्त, पाप के निर्णय में साक्षिता देखे, मिथ्या साक्षी को पाप तथा
दण्ड एवं प्रायश्चित्त व्रत (१-४०)। ११५०१ अष्टविवाहप्रकरणवर्णनम् । १७६७
आठ प्रकार के विवाहों की परिभाषा। उन विवाहों में चार शुद्ध और चार अशुद्ध । जैसा विवाह वैसी ही सन्तान । आसुरादि से अशुद्ध — सन्तान । द्रव्य देकर ग्रहण की हुई सी पनी संज्ञा नहीं पाती है उसके साथ यज्ञादि कम नहीं हो सकते हैं (१-२२)।