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[ ६६ ] अध्याय प्रधानविषय
पृष्ठा एक पोक्त में सबको समान भोजन देना, शूद्राम
भक्षण का दोष (२१-७१)। ४ गृहस्थाश्रमप्रशंसापूर्वकतीर्थधर्मवर्णनम् १६४८
दानधर्मप्रकरणवर्णनम् दानधर्मप्रकरणेसत्पात्रनिरूपणवर्णनम् १६५१ ब्राह्मणप्रशंसनवर्णनम्
१६५३ सांस्कृतिक जीवनी का वर्णन, माता पिता ही परम तीर्थ है। दान के विषय में यथायद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम् ।
अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ।। दान देना तथा धन का भोग करना यही अपना धन समझो। धन होने पर दाता भोक्ता बनो यह धार्मिक नैतिक अनुशासन बताया है। पढ़े हुए पुरुष का जीवन सफल और अनपढ़ का जीवन निरर्थक है। आचार्य आदि की परिभाषा, सुपात्र को दान देने से ही वह सफल होता है (१-७२)।