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कापरड़ा तीर्थ ।
जिसकी कार्यवाही जोधपुर की अदालत में होनी प्रारम्भ हुई । जोधपुर के जैन वकीलोंने उस समय जी जानसे सहायता दी। उपद्रवियों का इतना होंसला बढ़ गया कि यहां कुछ दिनों के लिये तथा शांति रक्षा के लिये यहाँ पुलिस भी रखनी पड़ी ।
अन्त में आचार्यश्री के तप तेज के प्रताप से सत्य ही की विजय हुई | न्यायाधीशने प्रकट किया कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जैनियों का ही मन्दिर है। दूसरे किसीको भी इसमें हस्तक्षेप करने का किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं है । फिर क्या देरथी । सब देवी देवताओं को मन्दिर के बाहर यथास्थान रख दिये । मन्दिरजी का खास खास जरुरी जीर्णोद्धार भी करवाना प्रारम्भ किया गया । शास्त्रकारों का स्पष्ट कथन है कि नये मन्दिर बनवाने की अपेक्षा पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने में आठगुना अधिक पुन्य है ।
बि० सं० १६७५ का माघ शुक्ला ५ को (वसंत पंचमी ) शुभ मुहूर्त और शुभ लभ में आचार्यश्री के वासक्षेप पूर्वक मूलनायक श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति (नील वर्ण) जो पहले से ही विराजमानथी और १७ बिम्ब आचार्यश्री की अनुग्रह कृपा से खंभात या अहमदाबाद और पाली से मंगवाए गये थे, इस प्रकार अष्टादश मूर्तियों ( चार मंजिला में १६ तथा मूल गभारे की दो ताको में २ ) की बड़ी समारोह से प्रतिष्टा करवाई गई। प्रतिष्ठा के महोत्सव का वर्णन अकथनीय हैं। चारों और चहल पहलथी । लोगों के आगमन से जंगल में