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मन्दिरजीकी माशातना। जैन मन्दिरों में बच्चों के झडुले (बाल काटना) आदि कई अनुचित कार्य होने प्रारम्भ हो गये। नौबत यहां तक बुरी पहुंच गई कि पिचयाक के बंदे से जो मच्छियों की डाक जोधपुर जाती है तब उसके लेजानेवाले भी रास्ते में विश्राम लेते समय इसी मन्दिर में डेरा लगाते थे। इस से अधिक क्या पतित हालत हो सकती है ? ऐसी विकटावस्था में कभी इधर से बीलाड़ा और कभी उधर से पीपाड़ श्रीसंघ इस मन्दिर की और द्रष्टिपात करता था इस लिये वे धन्यवाद के पात्र ठहराए जाय तो अनुचित न होगा।
प्रकृति का एक ऐसा नियम है कि कृष्णपक्ष के बाद शुक्लपच जरूर आता ही है। वही हालत इस तीर्थ की हुई क्योंकि इसकी भाशातना भी चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। अतः कृष्ण पक्ष के अंत आने पर ज्याँ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा आती है उसी मांति उस समय श्रीमान् पन्यासजी श्री हर्षमुनिजी अपने शिष्य मंडल सहित बीलाड़े के कतिपय श्रावकों के साथ इस तीर्थ की यात्रार्थ पधारे । दर्शन करने के पश्चात् जब आपने ध्यानपूर्वक जिनालय का निरीक्षण किया तो आपके कोमल हृदय पर सहसा इस बात की खूब जोरदार वेदना हुई कि हाय, हमारे तीर्थों की आज यह दशा हो गई है ! जहां जरूरत नहीं हैं वहां तो रंग, रोगन और बेल बूटों व आकर्षक लुभावने पदार्थों के लिये लाखों रूपये लगाये जा रहे