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कापरडा तीर्थ ।
कापरड़ाजी में जब महाजनों का केवल एक ही घर रहा तो फिर क्या प्राशा रखी जा सकती है कि मन्दिर की मरम्मत का काम भी हो सके । क्रमशः इस तीर्थ की ऐसी अवस्था हुई कि जिसका वर्णन लिखते हुए लेखिनी का साहस नहीं होता कि कुछ आगे बढ़े । लेखनी ही क्या हाथ भी थर थर कम्पायमान होने लगता है । हृदय दबा जाता है। आंखे शोक बहाना चाहती हैं। वर्तमान अवस्था पर विचार करते हुए खेद और परम खेद होता है कि कहाँ तो वे परम उत्कर्ष दिन थे जब हमारे पूर्वज तीर्थ रक्षण की प्राणप्रण से चेष्टा करते थे। कौन नहीं जानता कि हमारे पूर्वजोंने यवनों के
आक्रमणों से जिनालयों को बचाने के लिये अपने प्राणों को हथेली पर धर कर उनसे झूझ पड़े और धर्म के लिये हँसते हँसते प्राण दे दिये और कहाँ हम इस सुविधा के युगमें सर्व समर्थ होते हुए भी अपने आवश्यक कर्त्तव्य से पराङ्गमुख हैं कि अपनी मांखो के सामने तीर्थों की आशातना देख रहे हैं। हमें ऐसी उदासीनता और बेदरकारी के लिये क्या उपाधि दी जाय ।
हमारी इस असावधानी और लापरवही का लाभ अन्य लोगोंने उठाया। उन्होंने जिनालयों के अन्दर अपने माने हुए देवी देवताओं की मूर्तियों स्थापित की और मन्दिरों पर अपना अधिकार जमाना सरू किया। विवाह आदि के भवसर इन देवी देवताओं की पूजा की जाने लगी तथा