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________________ ૯. आशातना का फल. देखने से मालूम हुआ है कि प्रतिष्टा के पश्चात् एक शताब्दी तक उस नगर की जाहोजलाली वैसी ही बनी रही. विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के उतरार्द्ध तक तो मारवाड प्रान्त के जैन समाज में बडा भारी संगठन था इसका मुख्य कारण यह था कि समस्त जैनी मूर्तिपूजक थे । सारा जैन समाज जिनमूर्त्ति पूजन में तन मन और धन से रत्त था । प्रतिदिन वे सुकृत का कोई न कोई कार्य कर ही लेते थे तब फिर कमी ही किस बात की थी। कहा भी है ' यतोधर्मस्ततो जय' । इस नीति के अवलंबन से जैन समाज की सदा बढ़ती और सिद्धि होती थी । परन्तु दुर्भाग्यवश जब से जैनों में मूर्त्ति पूजना और नहीं पूजना ये दो विषम भेद हुए उस दिन से ही जैनों के दिन पलटे । इस भेद से ग्राम और शहर में जगह जगह क्लेश, कदाग्रह, राग-द्वेष, फूट-फजीती और मनमानी होने लगी। एक दूसरे को कट्टर दुश्मन समझने लगे जिस से न्याति जाति के संगठन भी शिथिल हो गये । एक दूसरे को हेठा और तुच्छ दिखाने के लिये येन केन प्रकारेण कोशिष करने लगा। ऐसी अवस्था में लक्ष्मी जैनियों के यहां से किनारा कर गई । राज्यतंत्र भी हाथ से निकलने लगा । उधर व्यापार भी पेंदे बैठने लगा । कदाचित् कापरड़ाजी की इस अवस्था का कारण भी यही हो । क्यों कि इस मतभेद के कारण सब से अधिक बुरा परिणाम यदि हुआ है तो वह यह है कि मन्दिरों की आशातना हुई है । जहाँ भगवान् के
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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