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________________ भंडारीजीका भागमन. पिताजी पर महती कृपा की है वैसी मुझपर भी करिये और कृपाकर शीघ्र ही मेरी चिन्ताको हरिये । परन्तु यतिजीने समझा कर कहा-नरसिंह इस समय यह कार्य नहीं हो सकेगा, यदि शुभ संजोग होता तो तुम स्वयं ही अपने पिता की प्राज्ञा का उल्लंघन न कर पाते । इस समय आग्रह करना व्यर्थ है । यतिजी के इस उत्तर को सुन कर नरसिंहजीने चुपचाप लौटना ही उपयुक्त समझा । जब भंडारीजी जोधपुर से वापस लौट कर पाए तो यह वृतान्त सुनकर बहुत दुखित हुए; परंतु करे क्या ! सीधे गुरुजी के पास पहुंचे और नरसिंह की तरह इन्होंने भी अभ्यर्थना की; परन्तु यतिजीने वही उत्तर दिया। अतः मंडारीजी को हतोत्साह होकर घर लौटना पडा । भंडारीजीने सोच लिया कि मेरी तुच्छ तकदीर में ऐसे स्थायी और उत्तम कार्य के होने की संयोजना कहाँ ! अबतक सिर्फ चार मण्डप तक का कार्य ही सम्पूर्ण हुआ है । शेष कार्य तो किसी भाग्यशाली द्वारा ही सम्पादित होगा। परन्तु आयुष्य का क्या विश्वास ! कैसा अच्छा हो यदि मेरे हाथ से इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य भी हो जाय । इस कार्य के लिये परामर्श लेने के लिये मंडारीजी यतिजी के समक्ष पुनः उपस्थित हुए । यतिजीने भी उस प्रस्ताव का समर्थन किया।
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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