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मेरा तो यह लोक और परलोक दोनों बिगडे । मोफ । में कहींका भी न रहा मुझे क्यों खोटी बुद्धि सूझी। इत्यादि प्रकार से उसने बहुत समय तक विलाप किया परन्तु अब पछताये क्या होने को था!
अन्त में उसने निश्चय किया कि मैं यह थैली लेकर क्यों नही गुरु महाराज के पास जाकर और वासक्षेप डलवा हूँ। शायद पुनः इसमें गुरु और धर्म की कृपा से अपूर्व गुण प्राप्त हो जाय ! चलते हुए मन में बहुत डरा पर इसके सिवाय और कोई उपाय ही नहीं था । चलकर गुरुवर्य के पास आया और अपनी भद्दी भूलकी सारी बात क्रंदन स्वरसे कह सुनाई । एकवार तो गुरुवर्य के शरीर में क्रोध प्रस्फुटित होने लगा । परन्तु विज्ञ गुरुरायने सोचा कि ऐसा करना अब व्यर्थ है। होना सो तो हो गया अब तो बिगड़ी को बनाने में ही श्रेय है । यतिवर्यने सान्तवन देते हुए नरसिंह से कहा कि चिन्ता करने की कोई बात नहीं है । यह घटना तो होनी ही थी तुम तो एक निमित्त मात्र हो । किसी भी कार्य के प्रारम्भमें व्यवहार और अन्त में निश्चय यही वीतराग के स्याद्वाद सिद्धान्त का मार्ग है। परिताप और पश्चाताप से कुछ होने का नहीं हैं।
“यतिजी के ऐसे बचनों से नरसिंह को कुछ धैर्य बंधा। उसने साहसकर निवेदन किया कि जिस प्रकार मापने मेरे