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________________ नरसिंहका पश्चात्ताप. होनहार हृदयबसे- बिसर जाय सब शुद्ध । जैसी हो भवितव्यता - वैसी उपजे बुद्ध । ३७ इधर नरसिंह के पास भी दो काम थे- घरका सबकार्य और मन्दिरजीका प्रबन्ध | बहुत दिन तक तो उसने तेजी से कार्य निवाहा पर अन्त में कार्य में कुछ शिथिलता प्रकट हुई । श्रमजीवियोंको समय पर वेतन नहीं चुकाया जा सका । तकाजे पर तकाजे होने लगे । एक दिन मिस्त्रीने आकर नरसिंह से बड़ी रकम मांगी। आतुरता में नरसिंहने कोपगृह के कपाट खोलकर कार्य को शीघ्र समाप्त करने की व्यग्रतामें देवस्वरुपी थैली को उल्टा कर दिया। रुपये सब बहार आकार ढेर हो गये । तुरन्त ही नरसिंह को पितृ आज्ञा की स्मृति हुई । उसके चित्त में प्रबल अनुताप उत्पन्न हुआ । उसके रोम रोम में पश्चातापकी ज्वाला धधकने लगी । वह अपने आपको धिक्कारने लगा कि हाय मैंने क्या गजब किया । हाय मेरा कल्पवृक्ष आज सूख गया । मुझ अभागे को चिंतामणि रखने की कहाँ सामर्थ्य । अरे, मेरी चित्रावली कहाँ लुप्त हो गई। मेरी कामधेनु कहाँ चली गई । मेरी मति क्यों मारी गई । अब मैं पिताजी को क्या मुँह दिखाउँगा । गुरु महाराज मुझे क्या समझेंगे । जनता मुझे क्या कहेगी। हाय, मैं कैसा पापी और पामर प्राणी हूँ ! मेरे कौन से अन्तराय कर्मों का उदय हुआ है । उफ ! मेरे कारण ही जिन मन्दिरका कार्य अधूरा रहेगा,
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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