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________________ कापरड़ा तीर्थ शिल्पकार वास्तु-विद्या- विशारद थे। उन्होंने शिल्पशास्त्र के आधार से व इष्टबल के प्रयोग से कार्य मैत्रीपूर्ण भावना से शुरू किया । मन्दिरजी का मुख्य दरवाज़ा उत्तर को बनाया गया । इसकी बनावट में यह चतुराई दिखाई गई कि मन्दिरके सम्मुख भूमिपर खड़ा हुआ व्यक्ति और वही हाथीपर सवार हुआ पुरुष भी दर्शन कर सके। गुरूकी कृपासे द्रव्यकी तो कमी थी नहीं फिर क्या चाहिये। अक्षय थैली का चमत्कार भी प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था । यह चमत्कार कोई नई बात न था ऐसा तो पहले भी कईवार हो चुका है कि जैनाचार्यों की कृपादृष्टिसे कई भक्तों के मनोरथ सफल हुए हैं । असंगत नहीं होगा यदि यहाँ पर गुरूकी महती कृपा की पुष्टी में कुछ उदाहरण प्रमाण के लिये दिये जाँय - ( १ ) पार्श्वदत्त श्रेष्ट को गुरू कृपा से पारस पाषाण की प्राप्ति हुई थी। जिसके कारण उसने चित्रकोट का दृढ़ दुर्ग बंधाया और अपने इष्ट की उपासना के निमित्त किले में कई दर्शनीय मन्दिर भी बनवाए । (२) डीडवाने के भैंसाशाह चोरड़िया पर गुरुकी ऐसी कृपा हुई की जहाँ कंडों ( छाणों ) का ढेर लगा हुआ थ वहाँ सोने का ढेर हो गया । उस सोने का गदियाणा सिक्का बनवाकर प्रचार किया जिस कारण से उसके वंशज अवतक 4 गदहीया ' नाम से प्रसिद्ध हैं ।
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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