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________________ भंडारीजी का प्रस्ताव । सौजन्य श्लाघनीय है। यदि आपके मनोरथ सिद्ध हों तो इसमें क्या आश्चर्य है । आशा है आप इसी प्रकार धर्म कार्यों का पाराधन करते रहेंगे।” भंडारीजीने तथास्तु कह कर पूछा-" महाराज, मेरे योग्य कोई सेवा-कार्य हो तो आज्ञा दीजिये।" यतिजीने इस अवसरको देखते हुए कहा-" भंडारीजी! मेरे चित्त में एक अभिलाषा कई दिनों से थी। आज प्रसंग आ गया है कह देना ठीक समझता हूँ। यद्यपि यह कापरड़ा नगर इतना बड़ा है तथापि यहाँ एक भी जिनालय का न होना कितना सोचनीय कार्य है। सुना जाता है कि यहां पहले जैन मन्दिर तो कई थे परन्तु अत्याचारी यवनों द्वारा सब नेश्त नाबूद कर दिये गये। यदि आपकी इच्छा हो तो इस पुण्योपार्जन का आप लाभ ले सकते हैं।" गुरुभक्त भंडारीजीने अपने आपको बड़ा अहोभागी समझा कि मुझे कैसा उत्तम पथ प्रदर्शन कराया गया है । वे प्रसन्न चित हो कहने लगे-"गुरुजी, यह तो एक साध्य कार्य है, परन्तु यदि आप असाध्य कार्य के लिये भी श्राज्ञा प्रदान करते तो मैं उसको साध्य बनाने में देवगुरु की असीम कृपा से समर्थ होता। लीजिये मेरे पास ५००) तो यह पुरस्कार के आए हुए इस समय तैयार हैं । बताइये और कितने चाहियें ?" यह कहते हुए भंडारीजीने ५००) की थेली यतिजी के सम्मुख रखदी।
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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