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________________ कापरड़ा तीर्य । नमस्कार कर अपनी राम कहानी कह सुनाई । भंडारीजीने इसका सारा श्रेय गुरु व देवकी कृपा को ही दिया और एतदर्थ कृतज्ञता भी ज्ञापन करने लगे। भंडाराजी गद् गद् वाणी हो कहने लगे-“ गुरुवर्य ! आपकी दया ही से मेरे सकल मनोरथ सिद्ध हुए हैं। यह जो कुछ हुआ है वह आपके शुभ पाशीवाद का ही फल है। इससे जैन शासन की प्रशंसा और शत्रुओं के दांत खट्टे हुए हैं।" यतिजीने भंडारीजी के कथन को स्वीकार करते हुए कहा-" भंडारीजी जैन धर्म कल्पवृक्ष है अथवा कहिये कामधेनु है । वह चिंतामणी की तरह इस लोक और परलोक में सुख और शांति का दाता है । परन्तु चाहिये इस पर अटूट श्रद्धा-दृढ़ प्रेम और सम्यक् समकित । इस बात को भी लक्ष्य में रखना परम आवश्यक है कि यदि शुभ अर्थात् धार्मिक कार्य करते हुए अशुभ कर्मोदय हों तो परम हर्ष मनाना चाहिये क्योंकि इससे लिया हुआ ऋण कर्मों को चुकाया जाता है। इस समय सम्यक् दृष्टि के अस्तित्व जितने पूर्व संचित कर्मों का क्षय हो जाय उतना ही अच्छा है क्योंकि इससे आत्मा के मैल दूर हो रहे हैं। ऐसी विपत्तियों को धैर्यता से सहन करना ही श्रेयस्कर है । इस सहनशीलता की सर्व सामग्री आपके पास तैयार है । अनुकूल सामग्री से ही कर्मों का ऋण शीघ्र और सहज ही चुकाया जा सकता है। भंडारीजी! आप सचमुच बड़े भाग्यशाली, प्रतिज्ञा पालक और दृढ़ नेमी हैं। आपका
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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