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________________ मंडारीजी की प्रतिज्ञा । बता चुका हूँ कि "प्राण जाय पर पचन न जाहिं"। सत्य की कसौटी तो अवसर आने पर ही होती है। मुझे तो ऐसा अवसर कमी कमी मिलता है परन्तु धन्य है उन मुनि और महात्मा पुरुषों को जो इस से भी कठिनतर परिपहों और उपसर्गों को सहर्ष सहन करलेते हैं। सरदारो? मनुष्य तो क्या पर पशु भी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हैं-कई महापुरुषों का भी यही कहना है" महावीर का यह फरमाना-सत रहता हो प्राण गँवाना । भंग प्रतिज्ञा लेकर करना-इससे तो बहतर है मरना"। " रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाय पुनि वचन न जाई" तुलसी " सत मत छोड़ो ए नरो-सत छोड़े पत जाय । सत की दासी लक्षमी-और मिलेगी आय"। सोचो किस प्रणवीर को कष्ट न सहना पड़ा। हरिश्चन्द्र को इसी हित डोम के घर बिकना पड़ा । रामचन्द्रजी को इसी लिये १४ वर्षे का बनवास भुगतना पड़ा। सत्य रक्षणार्थ पाण्डवोंने कौन से कष्ट न सहे ? महा सती सीता को भी इसी हेतु धधकती अग्नि में कूदना पड़ा। इत्यादि अनेक उदाहरण याद कर लीजिये। जिसने सत्य छोड़ा समझिये जीवन से हाथ धोया।
SR No.032646
Book TitlePrachin Tirth Kapardaji ka Sachitra Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1932
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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