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[श्रेष्टि संघवी धरणा
भी चार द्वार हैं। जो प्रत्येक दिशा में खुलते हैं। प्रत्येक खण्ड में वेदिका पर चारों दिशाओं में मुंह करके श्वेतप्रस्तर की चार सपरिकर प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। कुल में से २-३ के अतिरिक्त सर्व सं० धरणाशाह द्वारा वि० सं० १४६८ से १५०६ तक की प्रतिष्ठित हैं। इन चतुर्मखी खण्डों एवं प्रतिमाओं के कारण ही यह तीर्थ चतुर्मखप्रासाद के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इस चतुर्मखी त्रिखण्डी युगादिदेवकुलिका का निर्माण इतना चातुर्य एवं कौशलपूर्ण है कि प्रथम खण्ड में प्रतिष्ठित मूलनायक प्रतिमाओं के दर्शन अपनी २ दिशा में के सिंहद्वारों के बाहर से चलता हुआ भी ठहर कर कोई यात्री एवं दर्शक कर सकता है तथा इसी प्रकार समुचित अन्तर एवं ऊँचाई से अन्य उपर के दो खण्डों की प्रतिमाओं के दर्शन भी प्रत्येक दिशा में किये जा सकते हैं।
___ इस प्रकार यह श्री धरणविहार आदिनाथ चतुर्मुख जिना. लय भारत के जैन अजैन मन्दिरों में शिल्प एवं विशालता की दृष्टि से अद्वितीय है-पाठक सहज समझ सकते हैं। शिल्पकलाप्रेमियों को आश्चर्यकारी, दर्शकों को आनन्ददायी यह मन्दिर सचमुच ही शिल्प एवं धर्म के क्षेत्रों में जाज्वल्यमान ही है, अतः इसका बैलोक्यदीपक नाम सार्थक ही है।
प्रथम खण्ड की मूलनायकदेवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहिर दांही ओर एक चौड़ी पट्टी पर राणकपुर-प्रशस्ति वि० सं० १४६६ की उत्कीर्णित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि राणकपुरतीर्थ की यह देवकुलिका उपरोक्त संवत् तक बन कर तैयार हो गई थी।