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श्री राणकपुरतीर्थ ]
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मेघ-मण्डप और उसकी चारों दिशाओं में चार मेघमण्डप हैं, शिल्पकला. जिनको इन्द्रमण्डप भी कह सकते हैं। प्रत्येक मण्डप लगभग ऊँचाई में चालीस
फीट से अधिक है । इनकी विशालता और प्रकार भारत में ही नहीं, जगत के बहुत कम स्थानों में मिल सकते हैं । दो कोकुलिकाओं के मध्य में एक २ मेघ - मण्डप की रचना है । स्तम्भों की ऊँचाई और रचना तथा मण्डपों का शिल्प की दृष्टि से कलात्मक सौन्दर्य दर्शकों को आल्हादित ही नहीं आत्मविस्मृति करा देता है । घण्टों निहारने पर भी दर्शक थकता नहीं है ।
रंग- मण्डप.
मेघ-मण्डपों से जुड़े हुये चारों दिशाओं में मूल मन्दिर के चारों द्वारों के आगे चार रंगमण्डप हैं, जो विशाल एवं अत्यन्त सुन्दर है । मेघ-मंडपों के प्रांगन भागों से रंगमण्डप कुछ प्रोत्थित चतुष्कों पर विनिर्मित है। पश्चिम दिशा का रंगमण्डप जो पश्चिमाभिमुख मूलनायक - देवकुलिका के आगे बना है, दोहरा एवं अधिक मनोहारी है । उसमें पुतलियों का प्रदर्शन कलात्मक एवं पौराणिक है ।
राणकपुरतीर्थ चतुर्मुख त्रैलोक्यदीपक धरणविहारतीर्थ की प्रमुख प्रासाद क्यों कहलाता है ? देवकुलिका जो चतुर्मुखी देवकुलिका कहलाती है, चतुष्क के ठीक बीचों-बीच में विनिर्मित है । यह तीन खण्डी है । प्रत्येक खण्ड की कुलिका के
टोड साहब का राणकपुरतीर्थ के उमर लिखते समय नीचे टिप्पणी में यह लिख देना कि सं० धरणा ने इस तीर्थ की नींव डाली और चन्दा करके इसको पूरा किया - जैन- परिपाटी नहीं जानने के कारण तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा विनिर्मित कुलिकाओं, मण्डप एवं प्रतिष्ठित प्रतिभाओं को देख कर ही उन्होंने ऐसा लिख दिया है।