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________________ श्री राणकपुरतीर्थ ] [११ उसने बत्तीस वर्ष की युवावस्था में ही शीलवत ग्रहण कर लिया था। और नवीन २ जिनप्रासाद बनवाने की नित्य कल्पना किया करता था। एक रात्रि को उसने स्वप्न में नलिनीगुल्मविमान को देखा और नलिनीगुल्मविमान के आकार का एक जिनप्रासाद बनवाने का उसने स्वप्न में ही संकल्प भी किया। प्रातःकाल होते ही उसने स्वप्न और अपने निश्चय की अपने परिजनों के समक्ष चर्चा की। विमान तो उसको स्मरण रह गया, परन्तु उसका नाम उसको स्मरण नहीं रहा, अतः वह यह नहीं समझा सका कि वह कैसा जिनालय बनवाना चाहता है। फलतः उसने दूर २ से अनेक चतुर शिल्पविज्ञ कार्यकरों (कारीगरों) को बुलवाया। आये हुये कार्यकरों ने अनेक मन्दिरों के भांतिभांति के रेखाचित्र बना बनाकर धरणाशाह को दिखाये । उनमें से मुंडाराग्राम के रहने वाले शिल्पविज्ञ देपाक नामक सोमपुरा ने के शिला-लेखों का संग्रह करने की दृष्टि से वहाँ ३०-५-५० से ३-६-५० तक रहा। और पार्श्ववर्ती समस्त भाग का बड़ी सूक्ष्मता एवं गवेषणात्मक दृष्टि से अवलोकन किया। उपत्यका में मैदान अवश्य बड़ा है। परन्तु वह ऐसा विषम और टेड़ा-मेड़ा है कि वहाँ इतना विशाल नगर कभी था अमान्य प्रतीत होता है। दूसरी बात जीर्ण एवं खण्डित मकानों के चिह्न आज भी मोजूद हैं, जिनको देखकर भी यह अनुमान लगता है कि यहाँ साधारण छोटा-सा ग्राम था। तृतीय सुदृढ़ शंका जो होती है, वह यह कि अगर मादड़ी त्रैलोक्यदीपक जिनालय के बनने के पूर्व ही विशाल नगर था तो जैसी भारत में अनादिकाल से ग्राम और नगरों को संकोच कर बसाने की पद्धति रही है, इतने विशाल नगर में इतना खुला भाग कैसे निकल आया? त्रैलोक्यदीपक जिनालय का वह प्रकोष्ट जो व्यवस्थापिका
SR No.032636
Book TitleSanghvi Dharna aur Dharan Vihar Ranakpur Tirth ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Sangh Sabha
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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