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वर्तमान प्रकरण
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कुछ बना ही रहा । संवत् १९४६ में इनके पिता का स्वर्गवास हुआ। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अाधी रियासत द्विजराजजी को दे दी और प्राधी ब्रजराजजी एवं साधू को। व्रजराजजी अपुत्र थे और साधू से इनसे विशेष मेल था, इसी कारण लेखराजजी ने ऐसा बटवारा किया कि उनके दोनों पुत्रवान् लड़कों के संतान अंत में आधा-आधा पावें । अपने पिता के पीछे इन्होंने तो प्रबंध करके तीन ही वर्ष में सब अपने भाग का पैत्रिक ऋण चुका दिया, पर द्विजराजजी का ऋण बहुत बढ़ गया।
ब्रजराजजी दशांग कविता में बड़े ही निपुण थे । हमने आज तक ऐसा हिंदी-कविता-रीति-निपुण मनुष्य नहीं देखा । सब कविता के जाननेवालों में रीति-नैपुण्य में हम इन्हीं को सिरे मानते हैं । बड़े-बड़े कविगण इनके शिष्य हैं । हममें से शुकदेवविहारी मिश्र ने भी इन्हीं से कविता-रीति पढ़ी। सं० १९६६ में ये ऐसे अस्वस्थ हो गए थे कि इनको जीवन की आशा नहीं रही थी। उस समय इन्होंने साधू
और शुकदेवविहारी से यही कहा था कि "मरने का मुझे कुछ भी पश्चात्ताप नहीं है, परंतु केवल इतना खेद है कि मेरे पास जो कविता-रत्न है वह तुममें से किसी ने न ले लिया और वह अब मेरे ही साथ जाता है।" ईश्वर ने इन्हें फिर नीरोग कर दिया और फिर ये पूर्ववत् अच्छे हो गए । केवल रोग का थोड़ा-सा खटका, जो इनका चिरसाथी था, वर्तमान रहा । इनके पास हस्त-लिखित हिंदी के उत्तम ग्रंथों का अच्छा संग्रह था । ग्रंथावलोकन का इन्हें अच्छा शौक था, पर ये स्वयं रचना बहुत नहीं करते थे। फिर भी समस्यापूर्ति आदि पर सैकड़ों छंद आपने बनाए हैं। समस्यापूर्ति के पत्रों की प्रथा
आप ही के अनुरोध से निकली थी। श्राप साहित्य-पारिजात-नामक एक दशांग कविता का ग्रंथ बना रहे थे, जो पूर्ण नहीं हुआ था। देव-कृत शब्द-रसायन पर आप काव्यात्मक-टिप्पणी भी लिखते थे।