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मिश्रबंधु-विनोद
जो कदाचि धन धाम बिलोका ; तिन समान मानै त्रैलोका । जे धन हीन दीन मुख बाए ; जहँ-तहँ जाहिं पेट खलाए । नहिं जप जोग भोग मन लावा ; यह वह करत जरापन आवा। तन भा अबल बदन रदहीना ; तृष्णा तरुन होय तन छीना।
अन इच्छित आई जरा, सहज राम सित केस ;
मनहुँ बिसिख सित पुंख ते, भेदेउ काल नरेस । जिमि-जिमि देह जरापन अावा ; तिमि-तिमि तृष्णा तरुन कहावा । अन इच्छित तन बसी बुढ़ाई ; नीच मीच-भगनी दुखदाई। थके चरन कर कंपन लागे; प्रिय बालक जल देइ न माँगे। खाँसि-खाँ सि थूकहि महि माहीं । सुन सुत-बधू देखि अनखाँहीं।
चिंता मगन न लगन कछु, हरिपद पंकज धूरि ; पाइ गँवायो जनम जड़, मगन मनोरथ भूरि ।
(२१८३ ) जीवनराम भाट ये खजुरहरा जिला हरदोई-निवासी थे। इनका शरीर-पात प्रायः ६० वर्ष की अवस्था में हुआ था। ये अन्य भाटों की भाँति इधरउधर घूम-फिर कर छंद पढ़कर ही अपना निर्वाह करते थे । जगन्नाथ पंडितराज-कृत गंगा-लहरी का भाषा पद्यानुवाद इन्होंने किया था। इनकी रचना साधारण श्रेणी की थी। उदाहरणदेखी मैं बरात रामलीला की इटौंजा मध्य,
__शोभा रूप धाम राजा राम को विवाह है; बोलें चोपदार धूम धौंसा की धुकार सुनि,
चित्त नर नारिन के चौगुनो उछाह है। भारी भीर भूधर गयंदन की भीम घटा,
साजे गजराज पै बिराजे सीता-नाह है ;