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मिश्रबंधु-विनोद भवसागर को पार नहीं है तदपि पार मोहिं कीजै । जो कोउ दीन पुकारै प्रभु को अमित दोष दलि दीजै ; सुनि बिनती बृषभानुकुंवरि की अब प्रभु मेहर करीजै ।
(२१८०) ललिताप्रसाद त्रिवेदी ( ललित ) यह मल्लावाँ जिला हरदोरी अवधप्रदेश के वासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और प्रायः कानपूर में रहा करते थे । इन्होंने काव्य से जीविका नहीं की, किंतु उसे अपने चित्तविनोदाथ पढ़ा था। यह कानपूर में ग़ल्ले की दुकान पर मुनीबी का काम करते थे । काव्य का बोध इनको बहुत अच्छा था। हम इनसे दो-एक बार कानपूर में मिले हैं। इन महाशय ने रामलीला के वास्ते एक जनकफुलवारीनामक ३० पृष्ठ का ग्रंथ निर्माण किया था और इसी के अनुसार गुरुप्रसादजी शुक्ल रईस कानपूर के यहाँ धनुषयज्ञ में लीला होती थी। इन्होंने इसमें ग्रंथ निर्माण का समय नहीं दिया, परंतु हमको अनुमान से जान पड़ता है कि यह संवत् १६४० के लगभग बना होगा। ललितजी का लगभग ६० वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुआ। द्वि० त्रै खोज में “ख्यालतरंग"-नामक इनका एक ग्रंथ और मिला है। इनकी कविता रोचक और सरस है । उसकी रचना रामचंद्रिका के समान विविध छंदों में की गई है, और कविता प्रशंसनीय है, परंतु रामचंद्र और विश्वामित्रजी की बातचीत जो अंत में कराई गई है वह अयोग्य हुई है। ऐसी बातें गुरु और शिष्य नहीं कर सकते । ललितजी के कुछ स्फुट छंद और समस्यापूर्तियाँ देखने में आती हैं । इन्होंने दिग्विजयविनोद-नामक एक ग्रंथ नायिकाभेद का महाराजा दिग्विजयसिंहजी के नाम पर संवत् ११३० में बनाया था, जो मुद्रित भी हो गया है, परंतु महाराजा साहब के यहाँ से इनको | कुछ पारितोषिक इत्यादि नहीं मिला । शायद इसी कारण रुष्ट होकर इन्होंने काव्य से जीविका चलाना निंद्य