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मिश्रबंधु-विनोद
समान "एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' पर थे और हिंदू-धर्म के रस्मरवाजों पर वे ध्यान नहीं देते थे; इस कारण समय पर राजा हनुमंतसिंह और उनके बिरादरीवाले इनसे बहुत ही नाराज़ हुए । राजा रामपाल सिंह ने उनका क्रोध शांत करने को अपना राज्याधिकार फिर उन्हें वापस दे दिया। थोड़े दिन के बाद ये अपनी रानी समेत इंगलैंड गए । वहाँ इनकी रानी का देहांत हो गया। इंगलैंड में राजा साहब ने विद्योपार्जन में अच्छा श्रम किया और फ्रेच सथा जर्मन भाषाएँ भी सीखीं तथा गणित एवं तर्क-शास्त्र में अभ्यास किया। वहीं इन्होंने संवत् १८८३ से १८८५ तक हिंदोस्थान-नामक एक त्रैमासिक पत्र निकाला, जिसने कई अँगरेज़ों में हिंदी-प्रेम जाग्रत् किया। इसी समय राजा हनुमंतसिंह का देहांत हो गया, अतः ये कालाकाँकर पाए और रियासत का उचित प्रबंध करके दुबारा इंगलैंड गए । अब की बार ये वहाँ से एक मेम को अपनी रानी बनाकर लाए। ये रानी साहबा भी संवत् १९५४ में है ज़े से मर गई। इसके बाद राजा साहब ने एक विवाह और किया। संवत् १९४२ से आप हिंदोस्थान को दैनिक करके कालाकाँकर से निकालने लगे। तब से बहुत अर्थ-हानि होने पर भी ये बराबर उसे यावजीवन निकालते रहे । राजा साहब हिंदी तथा फारमी के अच्छे कवि थे।
आपके विचार प्राधुनिक विद्वानों के समान बड़े ही निडर थे। बहुत दिन तक ये काँगरेस में शरीक होते रहे । राजा साहब के हिंदी प्रेम तथा उन्नत विचारों का यहाँ के राजा लोगों को अनुकरण करना चाहिए। आपने कालाकाँकर में एक हनमंत-स्कूल भी खोला था, जो अच्छी दशा में था। उसे कॉलेज करने की इनकी इच्छा थी, जैसा कि इन्होंने अपने वसीयतनामे में लिखा था । राजा साहब का देहांत १८ साल हुए हो गया। सभी से उक्त दैनिक पत्र हिंदोस्थान बंद हो गया । इनके उत्तराधिकारी साहित्य-प्रेमी राजा रमेशसिंहजी ने एक