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मिश्रबंधु विनोद
सिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना । पीना प्याला भर रखना वही खुमारी ; साँची जोगिन पिय बिना वियोगिन नारी ॥२॥ X
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थोर
भरित नेह नव नीर नित बरसत सुरस जयति पूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर ॥ ३ ॥
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उठहु बीर रणसाज साजि जय ध्वजहि उड़ान; लेहु म्यान सों खङ्ग खींच रन रंग जमाओ । परिकर कसि कटि उठौ धनुष सों धरि सर साधौ ;
सँभा I
केसरिया बानो सजि-सजि रनकंकन बाँधौ । जो श्ररजगन एक होय निज रूप विचार; तजि गृह कलहहिं अपनी कुल मरजाद तौ श्रमरखाँ नीच कहा याको बल भारी सिंह जगे कहूँ स्वान ठहरिहै समर मँझारी । चींटिहु पद तल परे डसत है तुच्छ जंतु इक ;
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ये प्रतच्छ रि इन्हें उपेछै जौन ताहि धिक । धिक तिन कहँ जे आर्य होय यवनन को चाहैं ;
धिक तिन कहँ जे इनसों कछु संबंध निबाहैं । उठहु बीर सब साजि माड़हु घन संगर ;
लोह- लेखनी लिखहु जबल दुवन हृदै पर ॥ ४ ॥
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सब भाँति दैव प्रतिकूल होय यहि नासा ; अब तजहु बीरबर भारत की सब श्रासा । अब सुख-सूरज को उदै नहीं इत है है
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सो दिन फिर अब इत सपनेहूँ नहिं ऐ है ।