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मिश्र बंधु विनोद
काशी- कविमंडल, काशी- कविसमाज, बिसवाँ- कविमंडल, रसिकसमाज कानपूर, हल्दी- कविसमाज, फ़तेहगढ़ - कविसमाज, कालाकाँकरकविसमाज इत्यादि ।
ये सब समाज प्रायः ५० वर्ष के भीतर स्थापित हुए हैं | इन सबमें अधिकांश वही कविगण पूर्तियाँ भेजते थे ! इनके पत्रों से वर्तमान कवियों के नाम ढूँढ़ने में हमें बड़ी सुविधा मिली है । इन सबमें समस्यापूर्ति की जाती थी, और इनमें बहुत-से छंद प्रशंसनीय भी बनते थे । पर इस प्रथा से स्फुट छंद लिखने की रीति चलती है, जो विशेषतया श्रृंगार रस के होते हैं । अब भाषा में शृंगार - कविता की आवश्यकता बहुत कम है, क्योंकि भूतकाल में कविता का यह अंग उचित से अधिक ऐसे ही ऐसे स्फुट छंदों द्वारा भर चुका 1 sa हिंदी गद्य में वर्तमान प्रकार के विविध उपकारी विषय पर रचना की आवश्यकता है, और नाटक विभाग की पूर्ति और भी आवश्यक है । स्फुट छंदों के लिये अब स्थान बहुत कम है। फिर भी यह समस्यापूर्ति की प्रथा स्फुट छंदों हो की रचना बढ़ाती है। इन्हीं एवं अन्य कारणों से हमने संवत् १६५७ में एक लेख द्वारा समस्यापूर्ति की रीति को परम निंद्य कहा था । उस समय इस प्रथा का खूब ज़ोर था, पर अब उतना नहीं है । फिर भी इस रीति को उठाकर उन पत्रों के बंद कर देने से लाभ नहीं है, और लाभकारी विषयों पर छंदोबद्ध प्रबंध या कविता का छपना हमारी तुच्छ बुद्धि में उचित है। इस हेतु कई समाजों का टूट जाना और उनके पत्रों का बंद हो जाना बड़े दुःख की बात है, जैसा कि आजकल हुआ है, और अधिकांश समाज व समस्या के पत्र बंद भी हो गए ।
बरन् उन्हीं में उत्तम
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हमने स्थान-स्थान पर शृंगार - कविता एवं अन्य अनुपयोगी विषयों की रचनाओं की निंदा की है। फिर भी ऐसे ग्रंथों के रचयिताओं की