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मिश्रबंधु-विनोद
आजकल रामलीला और रासलीला से भी हिंदी का प्रचार कुछ-कुछ होता है। इनमें राम और कृष्ण की कथाओं का अभिनय किया जाता है । रामलीला प्रथम तो साधारण जनों के ही द्वारा विजयदशमी के अवसर पर और कहीं-कहीं दीवाली पर्यंत की जाती थी, पर थोड़े दिनों से रास-मंडलियों की भाँति रामलीला की भी अभिनय मंडलियाँ स्थिर हुई हैं, जिन्होंने रास-मंडलियों से बहुत अधिक उन्नति कर ली है
और जो वर्तमान थिएटरों के कुछ-कुछ बराबर पहुँच गई हैं । रासमंडलियाँ भी प्राचीन रीति पर थिएटर की-सी लीलाएँ करती हैं; यद्यपि इनसे अब तक बहुत कम उन्नति हो सकी है। समय-समय पर ग्रामों में कहीं-कहीं बहुत दिनों से वर्षा ऋतु में आल्हा गाने की परिपाटी चली आती है । इसका छंद तुकांतहीन बड़ा ही अोजकारी होता है। इसमें महोबे के राजा परिमाल तथा वीरवर आल्हा-ऊदन का वर्णन होता है, जो प्रायः लड़ाइयों से भरा है । पाल्हा की प्रतियाँ थोड़े ही दिनों से छपी हैं । यह नहीं ज्ञात है कि इसकी रचना किस कवि ने कब की थी। कहा जाता है कि चंद के समकालीन जगनिक वंदीजन ने पहले-पहल आल्हा बनाया, पर उस समय की भाषा का कोई अंश भी अब आल्हा में नहीं है । कहते हैं कि कन्नौज के किसी कवि ने वर्तमान आल्हा बनाया, पर इसका कोई प्रमाण नहीं है। जो कुछ हो,
आल्हा की कविता स्थान-स्थान पर परम प्रोजस्विनी और मनोहर है। पँवारा भी एक प्राचीन काव्य समझ पड़ता है। पर इसके रचयिता का भी पता नहीं है और न इसकी कोई मुद्रित अथवा लिखित प्रति ही मिलती है । पँवारा विशेषतया पासी लोग गाते हैं और उसमें देशीय राजाओं एवं ज़िमींदारों का हाल रहता है । जहाँ जो पँवारा प्रचलित है वहाँ के बड़े आदमियों का यश उसमें वर्णित होता है । यह पँवार राजाओं के यशोवर्णन से प्रारंभ हुअा जान पड़ता है, जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है। यदि कोई मनुष्य श्रम करके पासी