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मिश्रबंधु-विनोद
विचारों के अनुकूल है । इससे अवस्थीजी की स्वाभाविक बुद्धि-प्रखरता प्रकट होती है।
अवस्थीजी ने समस्या पूर्ति पर भी बहुत-सी रचना की है। श्राशु कविता का भी इन्हें अच्छा अभ्यास था, यहाँ तक कि इन्होंने बीस-पच्चीस साल से यह दर्पोक्ति का वचन कह रक्खा था कि
"देइ जो समस्या तापै कवित बनाऊँ चट; कलम रुकै तौ कर कलम कराइए ।" इस कथन के पुष्टयर्थ इन्होंने बहुत-से छंद बहुत स्थानों पर बनाए, परंतु कहीं इनकी कलम नहीं रुकी । इन्होंने ब्रजभाषा में कविता की है और वह अच्छी है। इनकी कविता के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं
(द्विज बलदेव-कृत) कहा द्वै है कछू नहिं जानि परै सब अंग अनंग सों जोरि जरे ; उतै बीथिन मैं बलदेव अचानक दीठि प्रकाशक प्रेम परे । हषि कै गे अयान दया न दई है सयान सबै हियरे के हरे ; चले कौन ये जात लिए मन मो सिर मोर की चंद्रकला को धरे। सागर सनेह सील सज्जन सिरोमनि त्यों,
हंस कैसो न्याव लोक नायक के लेख्यो है ; गुन पहिचानिवे को कंचन कसौटी मनौ,
द्विज बलदेव विश्व विशद विशेख्यो है। माछे रहो जौलों लोक लोमस सुजस जूह, ___ धरम धुरंधर रुचिर रीति रेख्यो है; राधाकृष्ण प्रेमपात्र महाराज राजन मैं,
___इंद्रविकरमसिंह जंबूदीप देख्यो है। खुर्द घटै बदै राहु गसै बिरही हियरे घने धाय घला है; ‘सो तौ कलंकित त्यों विष बंधु निसाचर बारिज बारि बला है।