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मिश्रबंधु-विनोद
पद
कमल मुख खोलौ अाजु पियारे। बिकसित कमल कुमोदिनि मुकुलित अलिगन मत्त गुंजारे ; प्राची दिसि रबि थार अारती लिए ठनी निवछारे । ललितकिशोरी सुनि यह बानी कुरकट बिसद पुकारे ; रजनी राज बिदा माँगै बलि निरखौ पलक उघारे ॥५॥ केको कोर कोकिला कोयल सामुहि करै जुहार ; परसन हुगनि कंज हित बोलैं भृगी जैजै कार । म दो रंध्र बेगि प्राची दिसि इति अब कहत पुकार ;
ललितकिशोरी निरख्यो चाहत रबि नव कुंज बिहार ॥ ६ ॥ लाभ कहा कंचन तन पाए। बचननि मृदुल कमलदललोचन दुखमोचन हरि हरखि न ध्याए। तन मन धन अरपन नहिं कीनो प्रान प्रानपति गुननि न गाए ; योबन धन कलधौत धाम सब मिथ्या सिगरी आयु गँवाए । गुरजन गरब विमुख रंग राने डोलत सुख संपति बिसराए । ललितकिशोरी मिटै ताप नहिं बिन दृढ़ चिंतामनि उर लाए ॥७॥
प्रिया मुख राजत कुटिली अलकैं। मानहुँ चिबुक कुंड रस चाखन द्वै नागिनि अति उमगीं थनके। बेनी छुटि परी एंडी लौं बिथुरि ल₹ घुघुरारी हलके ; यह अरविंद सुधारस कारन भँवर वृद जुरि मानहुँ ललकैं। चंदन भाल कुटिल भ्र मोरी ता पर यक उपमा है झलकै ; गै चढ़ि अरध चंद तट अहिनी अमी लूटिबे मन करि चलकैं। पुहुप सचित उरमाल बिराजत चरनकमल परसत ढलढलके; मनहुँ तरंग उठत पुनि ठिठुकत रूप सरोवर माहिँ बिमलकै । ललित माधुरी बदनसरोजहि राम करत पिय श्रमकन झलक ; भंग गनि पिय छबि मकरंदहि खूटत मुदित परत नहिँ पलकें ॥८॥