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परिवर्तन-प्रकरण
१०४५ देव प्रतिवादी के स्वरूप में उसमें पधारे । महाराजा जयसिंह का स्वर्गवास सं० १८६१ में हुआ।
महाराजा विश्वनाथसिंह जू देव ( नंबर १८७४ ) का जन्म संवत् १८४६ में हुआ था और अपने पिता के स्वर्गवास होनेपर आप सं० १८९१ में गद्दी पर बैठे । आपने संवत् १९९१ तक राज्य किया। आप प्रसिद्ध राधावल्लभीय प्रियदास के शिष्य थे। इन महाराज के समय में उत्कोच की चाल फैली और कई कारणों से इनके पुत्र रघुराजसिंह से इनका वैमनस्य हो गया । झगड़ों . से इन्होंने कई बड़े सरदारों को देशनिकाले का दंड दिया । अंत को संवत् १८६६ में आपने अपने पिता की भाँति राज्य-प्रबंध अपने पुत्र रघुराजसिंह को दे दिया, जो बड़ी-बड़ी बातों में इनकी सम्मति ले लेते रहे । रघुराजसिंह ने देशनिर्वासित सरदारों को लौटने की आज्ञा दी
और क्षत्रियों में कन्यावध की प्रथा हटाई । आपका विवाह उदयपूर के महाराणा सरदारसिंह की पुत्री से हुआ। आपके शासन से क्रूर दंड और सती की प्रथाएँ उठ गई। ___ नंबर (१८७४) के नीचे लिखे हुए ग्रंथों के अतिरिक्त महाराजा विश्वनाथसिंह ने परमतत्त्व, संगीतरघुनंदन, गीतरघुनंदन, तत्वमस्य सिद्धांत भाषा, ध्यानमंजरी और विश्वनाथप्रकाश-नामक अन्य ग्रंथ भी रचे । श्रापने निम्नलिखित ग्रंथ संस्कृत भाषा में भी बनाए-राधावल्लभभाष्य, सर्वसिद्धांत, श्रानंद रघुनंदन (दूसरा), दीक्षानिर्णय, भुक्तिमुक्तिसदानंदसंदोह, रामचंद्राह्निक सतिलक, रामपरत्व, धनुर्विद्या
और संगीतरघुनंदन (दूसरा ), भाषा आनंदरघुनंदन बनारस में छप चुका है। इन महाराज के ग्रंथ अप्रकाशित बहुत हैं । आपका विशाल पांडित्य अनेकानेक उत्कृष्ट हिंदी और संस्कृत-ग्रंथों से प्रकट है, और इतने अधिक ग्रंथों की रचना से आपका भारी साहित्य-प्रेम एवं श्रमशीलता प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है। आप बड़े दानी थे और