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मिश्रबंधु-विनोद बागै कलंक सेवक सों इन्हैं फोरि हौं सौति सुभाव लै जागी; हाय हमारी जरै अँखियाँ विष बान है मोहन के उर लागीं ॥ ३ ॥ जहाँ जोम कै अनीन कीन कठिन कनीन कन,
लोहे मैं बिलीन जिन्हैं घूमत विमान ; जहाँ धोपन धमकि घाव बोलत बमकि नहीं,
लोहू की लमकि लेन लागी लहरान । जहाँ रुंडन पै रुंडमुंड मुंडन के झुंड करें,
कोटिन बितुंड बिंध्य बंधु की समान ; तहाँ सेवक दिसान भीम रुद्र के समान,
हरिशंकर सुजान झुकि झारी किरवान ॥ ४ ॥
( १८०६) प्रतापकुँवरि बाई। ये जाखण गाँव परगना जोधपुर के भाटी ठाकुर गोयंददासजी की पुत्री और माड़वार के महाराजा मानसिंहजी की रानी थीं। इनका विवाह संवत् १८८६ में हुआ था। इन्होंने कई मंदिर बनवाए और ये बहुत दान-पुण्य किया करती थीं । ७० वर्ष की अवस्था में, संवत् १६४३ में, इनका स्वर्गवास हुआ । इन्होंने अपने पिता के यहाँ शिक्षा प्राप्त की थी और संवत् १६०० में विधवा हो जाने पर देवपूजन तथा काव्य की ओर अधिक ध्यान लगाया । इनकी कविता देवपक्ष की है, जो मनोहर है। इनके निम्नलिखित ग्रंथ हैं
ज्ञानसागर, ज्ञानप्रकाश, प्रतापपच्चीसी, प्रेमसागर, रामचंद्रनाममहिमा, रामगुणसागर, रघुवरस्नेहलीला, रामप्रेमसुखसागर, रामसुजसपच्चीसी, पत्रिका संवत् १९२३ चैत्रबदी ११ की, रघुनाथजी के कवित्त और भजनपदहरजस । इनकी गणना मधुसूदनदास की श्रेणी में है। उदाहरणार्थ हम इनके कुछ छंद नीचे देते हैं
धरि ध्यान रटौ रघुबीर सदा धनुधारि को ध्यानु हिए धरु रे ; पर पीर में जाय कै बेगि परौ करते सुभ सुकृत को करु रे ।