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परिवर्तन-प्रकरण
१०३३ झलक कपोलन पै बाजू जुही जाह के। बेनी बीच माधुरी एगुही है बार-बार ताप,
रंग पहिराए हैं बसन अंग लाह के; बीन-बीन कुसुम-कलीन के नवीन सखी, भूखन रचे हैं ब्रजभूषन की चाह के ॥ ३ ॥
( १७९६) रसरंग ये महाशय लखनऊ के रहनेवाले थे। इनका समय संवत् १६०० के लगभग था । इनकी कविता सरस और मनोहर है। इनका कोई ग्रंथ हमने नहीं देखा है, परंतु स्फुट छंद देखने में आए हैं। इनकी रचना-श्रेणी साधारण कवियों में है । इन्होंने ब्रजभाषा में कविता की है।
सुखमा के सिंधु को सिंगार के समुंदर ते, ___मथि कै सरूप सुधा सुखसों निकारे हैं; करि उपचारे तासों स्वच्छता उतारे तामैं,
सौरभ सोहाग श्री सो हास-रस डारे हैं। कबि रसरंग ताको सत जो निसारे,
तासों राधिका बदन बेस बिधि ने सँवारे हैं; बदन सँवारि बिधि धोयो हाथ जम्यो रंग,
तासों भयो चंद, करझारे भए तारे हैं। नाम- १७९७) ब्रजनाथ बारहट चारण, जयपुर। रचना-स्फुट । कविताकाल-१६०० । मृत्यु-१९३४ । विवरण-ये जयपुर-दरबार के कवि महाराज रामसिंह के समय
में थे । कविता इनकी साधारण श्रेणी की है । नीचे लिखा कवित्त इन्होंने महाराज तखतसिंह जोधपुर के मरने पर बनाया था।