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मिश्रबंधु-विनोद इनका तृतीय ग्रंथ है और उसी में उपर्युक्त बातों का वर्णन है । यह रंगतरंग संवत् १८६६ में सबसे पीछे बना था।
नवीन कवि ने इस ग्रंथ में रसों का वर्णन किया है । इसमें अनुप्रासों का बाहुल्य है । इस कवि की कविता-शैली पद्माकर से बहुत कुछ मिलती है, और उत्तमता में भी उसी कवि के समान है। इस कवि की रचना बहुत ही प्रशंसनीय है । हम इन्हें पद्माकर की श्रेणी में रखते हैं । उदाहरणार्थ इनके कुछ छंद नीचे लिखे जाते हैं
राजै गजराज ऐसे दारुन दराज दुति,
जिनकी गराज परै बैरी के तहलके ; सुंडादंड मंडित जंजीर झकझोरै गुन,
जीरन लौं तो जे झरैया मद जल के। श्रीमनि नरिंद मालवेंद्र देव इंद्रसिंह,
तेरी पौरि पेखिए हजारन के हलके ; अोज के सिँगार बड़ी मौज के सिंगार,
निज फौज के सिँगार जैतवार पर-दल के ॥३॥ सूरज के रथ के से पथ के चलैया चारु,
न थके थिराहिं थान चौकरी भरत हैं; फाँदत अलंगैं जब बाँधत छलंगैं,
जिन जोनन ते जाहिर जवाहिर झरत हैं। मालवेंद्र भूप की सवारी के अनूप रूप,
गौन मैं दपेटि पौनहू को पकरत हैं ; करि-करि बाजी जिन्हैं लाजै चपलाजी देखि,
तेरे तेज बाजी पर-बाजी-सी करत हैं ॥ २ ॥ चपक के चौसर चमेलिन की चंपकली,
गजरे गुलाबन के गलते उमाह के ; कदम तरौना तरे किंजलक झूमका की,